Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 406 1-5 - 3 - 3 (166) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन क्योंकि- कर्मो के क्षय के लिये प्रवृत्त ऐसे मुझे कुछ भी अशक्य नहि है... ___हे श्रमण ! इंद्रिय एवं नोइंद्रियवाले इस औदारिक शरीर से विषय भोगोपभोगों के पिपासु एवं स्वेच्छाचारी ऐसे अपने आत्मा के साथ हि युद्ध करो! तथा सन्मार्ग में प्रवेश करने के द्वारा अपनी इंद्रियां और मन को वश करो ! अन्य बाहर के प्राणिओं के साथ युद्ध करने से क्या ? अर्थात् अंतरंग कर्म स्वरूप शत्रुओं का क्षय होने से तुम्हारा कार्य सिद्ध होगा... और इससे अन्य और कोई कार्य दुष्कर नहि है... अब अगाध संसार समुद्र में भटकते हुए प्राणीओं को यह मनुष्य जन्म आदि सामग्री करोडों भावों में भी दुर्लभ है; यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : पूर्व सूत्र में संयम-साधना के अनुसंधान में जो भंग (विकल्प) बताए गए हैं; वे सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा उपदिष्ट है। उन्हों ने अपने ज्ञान में देखकर यह बताया है कि- संयम साधना के द्वारा ही मनुष्य निष्कर्म बन सकता है। साधना में तेजस्विता लाने के लिए प्रस्तुत सूत्र में पांच बाते बताई गई हैं। इन गुणों को जीवन में उतारने वाला साधक साध्य को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। ये पांच गुण इस प्रकार है;-१-स्नेह रहित होना; २-सदसत् का ज्ञाता होना; ३-रात्रि के प्रथम और अन्तिम पहर में अनवरत आत्म चिन्तन करने वाला होना; ४-सदा शील का परिपालक होना; और ५-कामेच्छा एवं लोभ-तृष्णा का त्यागी होना। स्नेह रहित होने का तात्पर्य है-राग-द्वेष रहित होना, क्योंकि- राग भाव में मनुष्य हिताहित की भावना को भूल जाता है। राग के तीन भेद किए गए हैं-१-स्नेह राग, २-दृष्टि राग और ३-विषय राग। स्नेह राग का अर्थ है-अपने स्नेही के दोषों को भी रागवश गुण रूप मानना, उसे गल्ती करने पर भी कुछ नहीं कहना। दृष्टि राग का अर्थ है-असत्य सिद्धान्त को असत्य होते हुए भी सांप्रदायिक राग वश सत्य मानना एवं कुतर्कों के द्वारा उसे सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना। विषय राग का अर्थ है- काम-भोगों के प्रति आसक्ति रखना। ये तीनों तरह का राग आत्मा को संयम से दूर हटाने वाला है, अत: साधक को राग भाव का परित्याग करना चाहिए। विवेकशील व्यक्ति ही संयम का भली भांती पालन कर सकता है। जिस व्यक्ति को सदसत् का विवेक हि नहीं है, हेयोपादेयता का बोध हि नहीं है, वह संयम का पालन नहीं कर सकता। इसलिए संयम-साधना को स्वीकार करने के पहिले पदार्थों का ज्ञान होना जरुरी है। अतः प्रस्तुत सूत्र में साधक के लिए विवेक सम्पन्न होना बताया गया है। साधु का जीवन आत्म साधना का जीवन है। वह रात दिन चिन्तन-मनन में संलग्न