Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 3 - 5 (168) 413 मुनिवृत्ति की आराधना नहीं कर सकते, किन्तु जो वीर आत्माएं हैं; वे ही मुनि वृत्ति को धारण करके कार्मण और औदारिक शरीर के धुनने में समर्थ हो सकते हैं। वे प्रान्त ‘चणकादि, और रूक्ष आहार का सेवन करते हैं।' तथा सम्यक्त्व या समत्व को धारण करने वाले वे मुनि संसार समुद्र को तैर जाते हैं। सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र सम्पन्न मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत, है, इत्यादि यहां वर्णन किया गया है। IV. टीका-अनुवाद : वसु याने द्रव्य अर्थात् संयम... यह संयम स्वरूप वसु है जिस के पास वह वसुमान् श्रमण... अर्थात् आरंभ समारंभों से निवृत्त साधु... अर्थात् सभी पदार्थों के स्वरूप को प्रगट करनेवाला ज्ञान जिसके पास है, ऐसे वे साधु अकर्त्तव्य स्वरूप पापकर्म की इच्छा कभी नहि करतें... यहां सारांश यह है कि- परमार्थ स्वरूप आत्मा की प्राप्ति होने पर वे साधु सावद्यानुष्ठान कभी नहि आचरतें... कहा भी है कि- जो सम्यक् प्रज्ञान है वह हि- पापों का त्याग है, ओर जो पापों का त्याग है; वह हि सम्यक् प्रज्ञान है... ऐसी बात गत-प्रत्यागत सूत्र के माध्यम से कहते हैं... सम्यग् याने सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यग्दर्शन... और यह दोनों सहचारी होने से एक के ग्रहण में दुसरे का ग्रहण हो जाता है... जो मुनी सम्यग्दर्शन अथवा सम्यग्ज्ञान को देखता है, वह मुनी संयमानुष्ठान स्वरूप मौन को देखता है... तथा जो मुनी संयमानुष्ठान स्वरूप मौन को देखता है; वह सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यग्दर्शन को देखता है... क्योंकि- ज्ञान का फल विरति है, और उसमें सम्यक्त्व अभिव्यक्ति का कारण है, अतः सम्यग्दर्शन-ज्ञान एवं चारित्र की एकता का अनुसंधान करना चाहिये... ____ यह सम्यग्दर्शनादि त्रिक का अनुसंधान प्रमत्त जीव से संभवित नहि है, क्योंकि- जो जीव शिथिल याने मंदवीर्यवाला हैं तथा तपश्चर्या एवं संयम में धृति अर्थात् दृढता रहित हैं तथा आर्द्र याने पुत्र, पत्नी आदि के अनुराग स्वरूप स्नेह से आई है, ऐसे उन साधुओं से यह अनुसंधान अशक्य है... तथा शब्द आदि गुणों का आस्वाद लेनेवाले, वक्र याने कुटिलकपट आचरणवाले, विषय एवं कषायादि से प्रमादी, तथा अगार याने घर में निवास करनेवाले मनुष्यों को पापकर्मो के त्याग स्वरूप मौन याने संयमानुष्ठान शक्य नहि है... किंतु मुनि याने तीनों लोक के स्वरूप को जाननेवाले साधु सावद्यानुष्ठान के त्याग स्वरूप मौन को धारण करके औदारिक शरीर अथवा कार्मणशरीर का विनाश करें... वह इस प्रकार- प्रांत याने वाल, चने इत्यादि अथवा अल्प तथा रूक्ष याने बिना विगइओंवाले आहार को ग्रहण करें... ऐसे मुनीजन... कर्मो को विनाश करने में समर्थ हैं, क्योंकि- वे सम्यक्त्वदर्शी हैं अथवा समता के दर्शी हैं... इस प्रकार प्रांत एवं रूक्ष आहार के द्वारा वह मुनी ओघ याने संसार समुद्र को तैरता है... तथा बाह्य एवं अभ्यंतर संग याने परिग्रह के अभाव में वह मुनी