Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 451
________________ 410 // 1-5-3-4 (167) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लोक अथवा पाखंडी लोक की रसोइ बनाना एवं सचित आहारादि इत्यादि प्रवृत्ति को देखकर तथा इससे विपरीत ऐसी जिनशासन की अहिंसादि प्रवत्तिओं को देखकर वह मनी संविद्धपथवाला होता है... तथा पूर्वोक्त हेतुओं से बांधे हुए कर्मो को तथा उसके उपादान कारणों को ज्ञ परिज्ञा के द्वारा सर्व प्रकार से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उनका त्याग करता है... कर्मबंध के कारणों का त्याग करनेवाले साधुलोग स्वयं मन, वचन एवं काया से प्राणीओं का वध नहि करतें, तथा अन्यों के द्वारा जीवों का वध नहि करवातें; एवं जीवों के वध करनेवालों का अनमोदन = प्रशंसा भी नहि करतें... किंत अपने आत्मा को संयमित करतें हैं तथा असंयमाचरण में प्रवृत्ति होने पर धिट्ठाइ नहि करते; तथा एकांत में भी अशुभाचरण हो जाने पर लज्जित होतें हैं, अर्थात् पापाचरण से डरतें हैं... ऐसा कहनेसे यह भी जानीयेगा कि- मोक्षमार्ग में प्रवृत्त वह मुनी क्रोध नहि करतें, जाति, कुल आदि का गर्व नहि करतें तथा वंचना - कपट नहिं करतें और पुद्गल पदार्थों का लोभ नहि करतें... क्योंकि- वे आगमशास्त्र से यह जानते हैं कि- प्रत्येक प्राणी को साता अनुकूल है तथा प्रत्येक प्राणी अन्य के सुख से सुखी नहिं होतें एवं अन्य के दुःखों से दुःखी नहि होतें, किंतु अपने शुभाशुभ कर्मो से हि सुख एवं दुःख का अनुभव करते हैं... ऐसा जानकर वह श्रमण किसी भी प्राणी की हिंसा नहिं करतें। ____ तथा सज्जन होने के अभिलाषी वे श्रमण-लोग संपूर्ण लोक में कोइभी प्रकार के पापारंभ नहि करतें... अथवा तपश्चर्या एवं संयमाचरण भी यश:कीर्ति के लिये नहि करतें किंतु जिन प्रवचन की प्रभावना के लिये हि तपश्चर्यादि अनुष्ठान करतें हैं... प्रवचन प्रभावक आठ हैं; वे इस प्रकार हैं... प्रावचनी ____ = वर्तमान समय में विद्यमान सूत्र के अर्थों का ज्ञाता... धर्मकथी __- धर्मकथा कहने में नंदिषेण मुनी की तरह चतुर... वादी मल्लवादी की तरह वाद-विवाद में समर्थ... नैमित्तिक भद्रबाहुस्वामीजी की तरह अष्टांग निमित्त के ज्ञाता... तपस्वी समभाव के साथ कठोर तपश्चर्या करनेवाले... विद्या वज्रस्वामीजी की तरह विद्याओं के ज्ञाता... सिद्ध कालिकमुनीश्वर की तरह अंजन...सिद्ध... 8. कवि सिद्धसेन आचार्य की तरह काव्य-कला में कुशल... अथवा तो साधु शरीर के रूप सौंदर्य की चाहना से उद्वर्तनादि क्रिया का आरंभ नहि करता... सभी कर्ममल के कलंक से रहित ऐसा एक मोक्ष अथवा राग-द्वेष से रहित ऐसे एक संयम में या उसके उपाय पंचाचार में हि एकाग्र दृष्टिवाला साधु कोइ भी प्रकार का *3 ;

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