Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 383 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 2 - 1 (159) श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 5 उद्देशक - 2 # विरत-मुनिः // प्रथम उद्देशक पूर्ण हुआ, अब द्वितीय उद्देशक का आरंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- प्रथम उद्देशक में कहा था कि- सावद्यानुष्ठान की विरति के अभाव में एकचर्या को प्राप्त साधु, सच्चा साधु = मुनी नहि है... अब इस दुसरे उद्देशक में यह बात कहेंगे कि- सावद्यानुष्ठान का त्याग करके जो संयम-विरति करता है; वह हि मुनिभाव को प्राप्त करके सच्चा साधु होता है... इस संबंधसे आये हुए द्वितीय उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 159 // 1-5-2-1 आवंती केयावंती लोए अनारंभजीविणो तेसु, एत्थोवरए तं झोसमाणे अयं संधीति अदक्खू, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नेसि एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, अट्ठिए नो पमायए, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, पुढो छंदा इह माणवा पुढो दुःखं पवेइयं अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विपणुण्णए // 159 // II संस्कृत-छाया : यावन्तः केचन लोके अनारम्भजीविनः तेषु, अत्र उपरत: तत् झोषयन्, अयं सन्धिः इति अद्राक्षीत्, यः अस्य विग्रहस्य अयं क्षणः इति अन्वेषी एषः मार्गः आर्यैः प्रवेदितः, उत्थितः न प्रमादयेत्, ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातं पृथक् छन्दाः इह मानवाः, पृथक् दुःखं प्रवेदितम्, सः अविहिंसन् अनपवदन्, स्पृष्टः स्पर्शान् विप्रेरयेत् // 159 // III सूत्रार्थ : जितने भी लोक में अनारम्भजीवी साधु हैं, भिक्षवृत्ति से गृहस्थों के यहां आहारादि लेकर अनारम्भी जीवन व्यतीत करते हैं, वे सावद्यकर्म से उपरत हैं, पाप कर्म को क्षय करते हुए साधुमार्ग को ग्रहण करते हैं। हे शिष्य ! तुं इस अवसर को देख, जो इस शरीर के स्वरूप को जानता है, वह अवसर का अन्वेषण करने वाला है। यह मार्ग तीर्थंकर एवं गणधरों द्वारा कथित है। संयम में उद्यत हुए साधु को प्रत्येक प्राणी के सुख दुःख को जानकर प्रमाद नहीं करना चाहिए। जीवों के पृथक् 2 अभिप्राय हैं, मानवों के पृथक् 2 अध्यवसाय हैं, प्राणियों का पृथक् 2 दुःख कथन किया गया है। वह अनारम्भजीवी साधु किसी भी जीव की हिंसा