Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 388 1 - 5 - 2 - 2 (160) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन समतृणमणीलेष्टुकांचनपरिणामवाला तथा समता को प्राप्त कीया हुआ साधु पाप के कारणभूत हिंसादि में आसक्त नहि होता... अर्थात् निर्दोष संयमाचरण में लीन रहनेवाले साधु को कदाचित् आतंक याने तत्काल जीवित के विनाशक शूल आदि व्याधिरोग उत्पन्न हो; तब धीर याने तीर्थंकर परमात्मा एवं गणधर महाराज कहते हैं कि- उत्पन्न हुए उन आतंको की पीडा याने दुःखानुभवों को साधुलोग सहन करें... इस आतंकवाली स्थिति में साधु ऐसा सोचे-विचारे कि- ऐसी पीडा मैंने पूर्वकाल में असातावेदनीय कर्मो के उदय से अनेकबार सहन की है, और भविष्यत्काल में भी मुझे सहन करनी है... क्योंकि- संसार में रहे हुए ऐसे कोइ प्राणी नहि हैं कि- जिन्हें असातावेदनीय कर्मो के उदय से होनेवाले रोग-आतंक की पीडा न हो... जैसे कि- मोहनीयकर्म आदि चार घातिकर्मो के क्षय होने से प्रगट केवलज्ञानवाले केवलज्ञानी भगवान् को भी वेदनीयकर्म के सद्भाव से आंतक-पीडा होना संभवित है... क्योंकि- तीर्थंकर आदि उत्तम पुरुष भी बद्धस्पृष्ट, निधत्त एवं निकाचित अवस्था को पाये हुए कर्मो को समभाव से सहन करके हि मुक्त होते हैं... निकाचित कर्मो का वेदन अवश्य होता हि है... इस बात से यह निश्चित हुआ कि- अन्य सामान्य साधु भी असातावेदनीय कर्म के उदय में राजर्षि सनत्कुमार चक्रवर्ती के दृष्टांत के द्वारा यह विचारें कि- मुझे भी यह आतंक सहन करना है... ऐसा सोचकर (समझकर) मुनी आतंक पीडा होने पर उद्वेग न करे... कहा भी है कि- सत्त्वहीन निर्गुण हे प्राणी ! अपने आप कीये हुए दुराचार के विपाक याने फलों को यहां नहि तो अन्यत्र बार बार सहन करना होगा... यदि इन पापकर्मो के फल को समझकर समभाव से यहां हि सहन करोगे तो तत्काल मोक्ष होगा... और यदि समभाव से सहन करना न चाहा, तो सेंकडों जन्मो में बार-बार सहन करना होगा... तथा मानव के इस औदारिक शरीर को चिरकाल पर्यंत रसायन आदि से पुष्ट करें तो भी यह शरीर मिट्टी के कच्चे घडे से भी अधिक निःसार है, अर्थात् विनश्वर है... इस बात को सूत्र में “भिदुरधर्मवाला यह शरीर है" ऐसा कहकर कहते हैं कि- असातावेदनीयकर्म के उदय से मस्तक, पेट, आंखें, छाती इत्यादि अंगोपांग में पीडा उत्पन्न होने पर स्वतः हि यह औदारिक शरीर विनाशशील है... तथा हाथ-पैर आदि अवयवों का विध्वंस होने से विध्वंसशील यह मानव-शरीर है... तथा यह शरीर अध्रुव याने अनिश्चित है... जैसे कि- रात्रि के अंत में अवश्य सूर्योदय होता है; यह ध्रुव याने निश्चित है, किंतु यह शरीर सो (100) साल के बाद हि विनाश होगा ऐसा निश्चित नहि है; अत: यह शरीर अध्रुव है... तथा यह शरीर अनित्य है... नित्य याने जो उत्पन्न न हुआ हो, जो विनष्ट भी न हो और सदा स्थिर एक स्वभाववाला हो... किंतु