Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 435
________________ 394 1 - 5 - 2 - 5 (163) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यहां तक कि मृत्यु के समय भी वह निर्भय रहता है। क्योंकि- शरीर पर भी उसे ममत्वभाव नहीं है। वह शरीर को केवल संयम साधना का साधन मानता है और साथ में वह यह भी जानता है कि- यह नष्ट होने वाला है। अतः उसके नाश होने के समय उसे चिन्ता एवं भय नहि होतें... परन्तु जो मनुष्य साधु बनने के पश्चात् भी शरीर पर एवं धर्मोपकरणों पर ममत्वभाव रखते है, वे भय से मुक्त नहीं होते... इससे स्पष्ट है कि- भय का मूल कारण परिग्रह है। इसकी आसक्ति के कारण मानव मन में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास का भाव उबुद्ध होता है और इसी कारण वह सदा भयभीत रहता है। चाहे परिग्रह परिमाण में थोड़ा हो या बहुत, किंतु यह परिग्रह-भाव हि एक दूसरे के मन में शंका-सन्देह एवं भय को जन्म देता है और दो व्यक्तिओं के बिच में भेद की दीवार खड़ी कर देता है। इसलिए आगम में मुनि के लिए परिग्रह का सर्वथा त्याग करना अनिवार्य कहा गया है। परिग्रह भी दो प्रकार का है-द्रव्य और भाव। भाव परिग्रह-मूर्छा, आसक्ति आदि है। द्रव्य परिग्रह भी लौकिक वित्त और लोकवृत्त के भेद से दो प्रकार का माना गया है। धनधान्य आदि परिग्रह लौकिक वित्त में गिना गया है। और आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा आदि परिग्रह लोकवृत्त में माना गया है। क्योंकि- सभी तरह का परिग्रह भय का करण है। इसलिए मुनि को परिग्रह मात्र का त्याग करके निर्भय बनना चाहिए। अत: साधु के लिए थोड़ा या अधिक परिग्रह सर्वथा त्याज्य है। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते है... I सूत्र // 5 // // 163 // 1-5-2-5 से सुपडिबद्धं सूवणीयंति नच्चा पुरिसा परमचक्खू विपरिक्कमा, एएसु चेव बंभचेरं तिबेमि, से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे बंधपमुक्खो अज्झत्थमेव, इत्थ विरए अणगारे दीहरायं तितिक्खए, पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए, एयं मोणं सम्म अणुवासिज्जासि तिबेमि // 163 // II संस्कृत-छाया : ___ तस्य सुप्रतिबद्धं सूपनीतं इति ज्ञात्वा हे पुरुष ! परमचक्षुः ! विपराक्रमस्व ! एतेषु चैव ब्रह्मचर्य इति ब्रवीमि / तत् श्रुतं च मया, अध्यवसितं च मया, बन्ध-प्रमोक्षः अध्यात्मनि एव, अत्र विरत: अणगारः दीर्घरानं तितिक्षेत, प्रमत्तान् बहिः पश्य, अप्रमत्तः परिव्रजेत्, एतत् मौनं सम्यक् अनुवासयेः इति ब्रवीमि // 163 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528