Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 366 1 - 5 - 1 - 1 (154) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 5 उद्देशक - 1 __ एकचर्या // I सूत्र // 1 // // 154 // 1-5-1-1 आवंती केयावंती लोयंसि विप्परामुसंति अट्ठाए अणट्ठाए, एएसु चेव विप्परामुसंति, गुरू से कामा, तओ से मारते, जओ से मारते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव दूरे // 154 // II संस्कृत-छाया : ___ यावन्तः केचन लोके विपरामृशन्ति, अर्थाय, अनर्थाय, एतेषु एव विपरामृशन्ति। गुरवः तस्य कामाः, ततः सः मारान्तः, यतः सः मारान्तः ततः सः दूरे... नैव असौ अन्त: नैव दूरे // 154 // III सूत्रार्थ : इस लोक में जितने जो कोइ भी प्राणी हैं; वे सकारण या निष्कारण जीवों का वध करतें हैं; क्योंकि- उसको शब्दादि काम-विषय गुरु याने अधिक हैं इसलिये हि वह मरण के मुख में है, और जैसे वह मरण के मुख में है; वैसे हि वह मोक्ष से दूर है... किंतु जो केवलज्ञानी हैं वे न तो मरण के मुख में हैं, और न तो मोक्षसे दूर हैं // 154 // IV टीका-अनुवाद : जितने भी जीव मनुष्य अथवा असंयत हैं... कहां ? तो कहते हैं कि-इस चौदह राजलोक स्वरूप विश्व में अथवा गृहस्थलोक तथा अन्य तीर्थिकलोक में जितने भी जीव मनुष्य अथवा असंयत हैं, वे विषयाभिलाष के कारण से छह जीवनिकाय के जीवों को अनेक प्रकार से दंड, कश याने चाबुक से ताडन आदि के द्वारा सकारण या निष्कारण परिताप याने दुःख देते हैं... अर्थाय याने अर्थ- धनके लिये... अथवा अर्थ याने प्रयोजन... वह धर्म, अर्थ एवं काम स्वरूप है... अर्थात् धर्मादि के प्रयोजन से प्राणी जीवों का वध करता है... जैसे किधर्म के लिये- शौच याने पवित्रता के लिये पृथ्वीकाय का समारंभ करता है तथा धन के लिये