Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 1 - 5 (158) 377 ." वह मदिरा के पान से उन्मत्त मनुष्य की तरह विपर्यय को पाकर विविध प्रकार की वेदना.पीडाओं का अनुभव करता है... ____अन्य जीवों की बात तो दूर रहो किंतु प्रव्रज्या को पाकर भी विषयाभिलाषाओं से पीडित जो साधुजन विभिन्न प्रकार के सावध आचरण करतें हैं; उनके लिये परमात्मा कहतें हैं कि- इस मनुष्य लोक में कितनेक साधु एकचर्या का आचरण करतें हैं... प्रशस्त एवं अप्रशस्त के भेद से एकचर्या के दो प्रकार होते हैं... पुन: वे दोनों द्रव्य एवं भाव भेद से दो दो प्रकार से हैं.... 1. द्रव्य से अप्रशस्त - विषय एवं कषाय के कारण से गृहस्थ तथा पाखंडीओं का एकाकी विचरना... भाव से अप्रशस्त - यह भंगा शून्य है... क्योंकि-यह विकल्प राग-द्वेष के अभाव में होता है... और राग-द्वेष के अभाव में अप्रशस्तता हो हि नहि शकती... द्रव्य से प्रशस्त - प्रतिमा को स्वीकारनेवाले एवं स्थविरकल्प वाले साधु को संघ आदि कार्यों से एकाकी विचरना होता है... 4. भाव से प्रशस्त - राग-द्वेष के अभाववाले केवलज्ञानी का एकाकी विचरना... इस चतुर्भंगी में द्रव्य से एवं भाव से प्रशस्त एकचर्या, छद्मस्थ तीर्थंकरों को केवलज्ञान के पूर्व श्रमण अवस्था में होती है... और अन्य श्रमण चारों भंग में प्राप्त होते हैं... उनमें द्रव्य से अप्रशस्त एकचर्या का उदाहरण इस प्रकार है... पूर्व-देश में धान्यपूरक नाम के संनिवेश (गांव) में एक तापस था... वह प्रथम उम्र में देवकुमार के समान देहवाला था... वह छट्ठभक्त याने दो उपवास और तीसरे दिन भोजन ग्रहण स्वरूप तपश्चर्या गांव के प्रवेश-निर्गम दरवाजे के पास तथा दुसरा तापस गांव के पास पर्वत की गुफा में अठ्ठमभक्त याने तीन उपवास के द्वारा तपश्चर्या से साथ आतापना करता था... अब जो तापस गांव के निर्गम मार्ग में रहकर शीत एवं ताप को सहन करता हुआ तपश्चर्या करता था, उसके गुणों से आकर्षित हुए गांव के लोग पूजा-सत्कार एवं स्तुति के साथ आहारादि से सेवा-भक्ति करते हैं; तब वह तापस गांव के लोगों को कहता है कि- पर्वत के परिसर में तपश्चर्या करनेवाला तापस मेरे से भी अधिक दुष्कर कारक है.. इस प्रकार बार बार गांव के लोगों को कहता है; तब गांव के लोगोंने पर्वत की गुफा में तपश्चर्या करनेवाले उस एकाकी तापस की सेवा-भक्ति की... पूजा... स्तुति करी... क्योंकिअन्य का गुणोत्कीर्तन करना दुष्कर है; ऐसा जाननेवाले गांव के लोगोंने पहले तापस-मुनी के