Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 372 1 - 5 - 1 - 3 (156) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संशय होता है... यह अर्थसंशय है... तथा अनर्थ याने संसार और संसार के कारण... इस अनर्थ के संशय में आत्मा का निर्वाण हो शकता है... क्योंकि- अनर्थ का संशय हि निवृत्ति का अंग है... अत: अर्थ एवं अनर्थगत संशय को जाननेवाले को हि हेय में निवृत्ति एवं उपादेय में प्रवृत्ति होती है... और यह हि परमार्थ से संसार का परिज्ञान है.... . इस प्रकार अर्थ एवं अनर्थ के संशय को जाननेवाले को हि चार गति स्वरूप संसार एवं उसके कारण मिथ्यात्व अविरति आदि अनर्थ स्वरूप प्रतीत होते हैं; अतः उनको ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनका त्याग करतें हैं... तथा जो प्राणी को संशय नहि होता वह संसार को भी नहि जानता... अर्थात् दोनों प्रकार के संशय याने संदेह को नहि जाननेवाले व्यक्ति हेय से निवृत्त एवं उपादेय में प्रवृत्त नहि हो पातें... और इस स्थिति में अनित्य, अशुचिस्वरूप, व्यसन याने दुःखो की बहुलतावाले एवं निःसार संसार को भी नहि जान शकतें हैं... प्रश्न- ऐसा कैसे निश्चय हो कि- संशय को जाननेवाले हि संसार को जानते हैं यह बात हम किस संकेत से जान शकतें हैं ? उत्तर- विरति की प्राप्ति हि संसार के परिज्ञान का कार्य याने फल है... अब सर्वविरति का स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में पदार्थ ज्ञान और संशय का अविनाभाव संबन्ध माना गया है। यहां संशय का अर्थ है-पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानने की जिज्ञासा वृत्ति। इससे स्पष्ट होता है कि- संशय हि सम्यग् ज्ञान के विकास का कारण है। जब मन में जानने की जिज्ञासा वृत्ति उद्बुद्ध होती है, तब मनुष्य उस ओर प्रवृत्त होता है। इस प्रकार वह ज्ञान के क्षेत्र में निरन्तर आगे हि आगे बढ़ता रहता है। संशय-जिज्ञासा वृत्ति दो प्रकार की होती है-१-अर्थगत और २-अनर्थगत। मोक्ष एवं मोक्ष के कारणभूत संयम आदि को जानने की जिज्ञासा वृत्ति को अर्थगत संशय कहते हैं और संसार एवं संसार परिभ्रमण के कारणों को जानने की जिज्ञासा वृत्ति को अनर्थगत संशय कहते हैं। दोनों प्रकार के संशय से ज्ञान में अभिवृद्धि होती है। और संसार एवं मोक्ष दोनों के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला व्यक्ति ही हेय वस्तु का त्याग करके उपादेय को स्वीकार करता है। इसलिए यह कहा गया है कि- जो व्यक्ति संशय को जानता है, वह संसार के स्वरूप को जानता है और जो संशय को नहीं जानता है; वह संसार की यथार्थता नहीं जान सकता।