Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1 - 5 - 1 - 3 (156) 371 V . सूत्रसार : .. विश्व की प्रत्येक वस्तु परिवर्तन शील है। प्रत्येक पदार्थ की पर्यायों में पतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। काल की गति के साथ-साथ जीवन की धारा भी बदलती रहती है। बाल्य काल के बाद जवानी आती है, यौवन का स्थान क्रमशः प्रौढ़ता ग्रहण करती है, प्रौढ़ावस्था को परास्त करके बुढ़ापा मनुष्य को बुरी तरह से पछाड़ देता है; काल याने मरण मानव को एकदम परास्त कर देता है। अतः मोह कर्म से आवृत्त एवं विषयासक्त व्यक्ति जीवन की क्षणिकता की ओर आंख मूंदकर एवं अपने जीवन को अविनाशी मानकर रात-दिन दुष्कर्मों में संलग्न रहता है। और पाप कर्म करके संसार में परिभ्रमण करता रहता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य इस बात को भलीभांति जानता है कि- पापकर्म संसार का हेतु है... तथा वह अपने जीवन की अस्थिरता से अपरिचित भी नहीं है। क्योंकि- वह दर्शन मोहनीयकर्म का क्षय या क्षयोपशम कर चुका है। इस से स्पष्ट होता है कि- संसार परिभ्रमण एवं दुष्कर्मों में प्रवृत्ति का कारण मोह कर्म का उदय है। अतः मोह कर्म का नाश करने से आत्मा में विशिष्ट ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित होते देर नहीं लगती। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 156 // 1-5-1-3 संसयं परियाणओ संसारे परिण्णाए भवइ, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिण्णाए भवइ // 156 // II संस्कृत-छाया : .. संशयं परिजानता संसारे परिज्ञातं भवति, संशयं अपरिजानता संसारे अपरिज्ञातं भवति // 156 // III सूत्रार्थ : जो व्यक्ति संशय को जानता है, वह संसार के स्वरूप का परिज्ञाता होता है। और जो संशय को नहीं जानता है, वह संसार के स्वरूप को भी नहीं जानता। IV टीका-अनुवाद : संशय याने यह “यह है कि यह है" ऐसा दोनो अंश का संदेह... इस संशय का दो भेद है... 1. अर्थ संशय, 2. अनर्थसंशय... उनमें अर्थ याने मोक्ष और मोक्ष का उपाय, इनमें भी मोक्ष में संशय नहि है क्योंकि- मोक्ष परमपद स्वरूप है; किंतु मोक्ष के उपाय में