Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 370 1 - 5 - 1 - 2 (155) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - - IV टीका-अनुवाद : मिथ्यात्व के पटल (आवरण) दूर होने से प्रगट हुए सम्यक्त्व के प्रभाव से मुमुक्षु मुनि संसार के सार (रहस्य). को देखते हैं, वे जानते हैं कि- संसारी जीवों का जीवित कुशाग्र के उपर रहे हुए जलबिंदु की तरह अस्थिर है... क्योंकि- निरंतर अन्य अन्य उदक = जल के परमाणुओं का संग्रह होने से प्रेरित तथा वायु से संचालित वह कुशाग्र-जलबिंदु आस्थिरता के कारण से विनाश को पाता है... यद्यपि कुशाग्र के उपर रहा हुआ जलबिंदु के समान जीवन क्षणमात्र स्थितिवाला है, तथापि बाल याने अज्ञानी जीव अपने वर्तमान जीवित को बहु मानता है; क्योंकि- वह सद् एवं असद् के विवेक में मंद है, अतः परमार्थ नहि जानता... ऐसी स्थिति में वह अज्ञानी मनुष्य निर्दयता से सकल लोक को आश्चर्य उत्पन्न करे ऐसे हिंसा-जूठ-चोरी इत्यादि अट्ठारह पापस्थानकों का आचरण करता है, वह मूढ प्राणी ऐसा सोचता है कि- जूठ, चोरी एवं हिंसादि पापकर्मो से मेरा यह दुःख दूर होगा... इस प्रकार महामोह से मोहित वह मूढ प्राणी विपर्यासता से दुःखों के कारण-हिंसादि को हि दुःख दूर करने का कारण समझ कर हिंसादि पापारंभ करता तथा मोह याने अज्ञान अथवा मिथ्यात्व, कषाय एवं विषयाभिलाषा स्वरूप मोहनीय कर्म... ऐसे उस मोह से मोहित अज्ञानी प्राणी कर्मबंध करता है और जन्मांतर में तिर्यंच या मनुष्य गति में गर्भ में उत्पन्न होता है, फिर जन्म पाकर बाल, कुमार, यौवन आदि उम्र की विशेष अवस्थाओं में विषय एवं कषायों के आसेवन से कर्मबंध करके आयुष्य पूर्ण होने पर मरण को प्राप्त करता है... यहां आदि पद से पुनः गर्भादि अवस्था तथा नरकादि स्थानो में उत्पन्न होता है; इस प्रकार यह अज्ञ प्राणी मोह के कार्य स्वरूप जन्म-मरणादि में बार बार याने अनादि-अनंत काल पर्यंत की स्थितिवाले चारगति स्वरूप इस संसार-अटवी में पर्यटन करता है... किंतु जो प्राणी मिथ्यात्व, कषाय और विषयाभिलाषा का त्याग करता है वह संसारअटवी में पर्यटन नहि करता... परंतु मोक्षप्राप्ति लिये विशिष्ट ज्ञान चाहिये और वह विशिष्ट ज्ञान मात्र मोह के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से हि प्राप्त होता है... इस प्रकार यहां विशिष्ट ज्ञान एवं मोहाभाव इतरेतराश्रय याने अन्योन्याश्रयवाले हैं... वह इस प्रकार- मोह, अज्ञान, एवं मोहनीय कर्म के अभाव में विशिष्ट ज्ञान और विशिष्ट ज्ञान से मोह, अज्ञान एवं मोहनीय कर्म का अभाव... तो अब यहां यह प्रश्न रहा कि- जब तक विशिष्ट ज्ञान न हो, तब तक कर्मो का शमन (विनाश) होना मुश्केल है... अतः इस प्रश्न का उत्तर आगे के सूत्र से कहेंगे...