Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 1 - 4 (157) 373 इससे स्पष्ट होता है कि- संशय हि पदार्थ ज्ञान के लिए होना चाहिए। भगवती सूत्र - में गौतम स्वामी के लिए जात संशय, संजात संशय और समुत्पन्न संशय ऐसा तीन बार उल्लेख किया गया है। जात संशय की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार अभयदेवसूरि जी ने लिखा है कि'जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयस्तु अनवधारितार्थज्ञानं जातसंशय, इदं वस्त्वेवं स्यादेवमिति।' अर्थात् जो ज्ञान पहिले धारण नहीं किया गया है; उस की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले संशय को जात संशय कहते हैं। इस प्रकार यह संशय सम्यग ज्ञान वृद्धि में कारणभूत है। इससे पदार्थों का यथार्थ बोध होता है और उनकी हेयोपादेयता का भी परिज्ञान होता है। हेय एवं उपादेय वस्तु का त्याग एवं स्वीकार कौन कर सकता है ? इस बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 157 // 1-5-1-4 जे छेए से सागारियं न सेवइ, कट्ट एवमवियाणओ बिइया मंदस्स बालया लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अनासेवय त्ति बेमि // 157 // II संस्कृत-छाया :.. . यः छेकः सः सागारिकं न सेवते, कृत्वा एवं अविजानत: द्वितीया मन्दस्य बालता, लब्धान् हु अर्थान् प्रत्युपेक्ष्य आगम्य अनाज्ञापयेत् अनासेवनया इति ब्रवीमि // 157 // . III सूत्रार्थ : जो साधक कुशल है, निपुण है, वह विषय-भोगों का आसेवन नहीं करता। परन्तु कुछ मंदबुद्धि साधु विषय-वासना का सेवन करके भी गुरु आदि के पूछने पर उसे छुपाने का प्रयत्न करते हैं। वे कहते हैं कि- हमने मैथुन का सेवन नहीं किया। इस तरह पाप को छुपाकर रखना उन मन्दबुद्धि साधकों की दूसरी अज्ञानता है। बुद्धिमान साधक विषयों की प्राप्ति होने पर भी उस और अपने योगों को नहीं लगाते। वे उनके विपाक-फल का विचार कर उसका सेवन नहीं करते और अन्य साधकों को भी उनसे बचकर रहने का आदेश देते हैं। IV टीका-अनुवाद : . छेक याने पुन्य एवं पाप को जाननेवाले निपुण साधु हि मन-वचन-काया से सागारिक याने मैथुन का सेवन नहि करतें... ऐसे साधु हि संसार के यथास्थित स्वरूप को जानतें हैं...