Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 322 1 - 4 - 2 - 2 (144) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संतो का, शास्त्रों का एवं धर्म स्थानों का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है। या हम यों कह सकते हैं कि- व्यवहार शुद्धि के पथ से हि हम निश्चय दृष्टि की शुद्धि के सुरम्य स्थल तक पहुंच शकतें हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘जे आसवा ते परिस्सवा.....' इत्यादि पाठ में ‘आसवा' से आस्रव स्थान, ‘परिस्सवा' से निर्जरा के स्थान, 'अणासवा' से व्रत विशेष और 'अपरिस्सवा' से कर्म बन्ध के स्थान विशेष समझना चाहिए। जीव अपने शुभाशुभ-भावों के द्वारा बन्ध के स्थान को निर्जरा का एवं निर्जरा के स्थान को बन्ध का कारण बना लेता है। आस्रव और निर्जरा के स्थान पृथक्-पृथक् है। आस्रव . में भी आठों कर्म के आठों स्थान भिन्न-भिन्न हैं और इसी प्रकार आठों कर्मों को रोकने वाले संवर एवं क्षय करने वाले निर्जरा स्थान भी भिन्न भिन्न है। अत: मुमुक्षु पुरुष को आस्रव, संवर एवं निर्जरा के स्वरूप को भली-भांति जानकर जिनेश्वर-परमात्मा की आज्ञा के अनुसार अपने भावों को विशुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। तीर्थंकर एवं गणधरों की तरह स्थविर आचार्यादि साधुजन भी उपदेश के द्वारा आर्तदुःखी एवं प्रमत्त जीवों को जगाते रहते हैं। वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 144 // 1-4-2-20 आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं अट्टा वि संता अदुवा पमत्ता अहासच्चमिणं ति बेमि। नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि, इच्छा पणीया वंका निकेया कालगहिया निचयनिविट्ठा पुढो पुढो जाइं पकप्पंति // 144 // II संस्कृत-छाया : आख्याति ज्ञानी इह मानवानां संसारप्रतिपन्नानां सम्बुद्धयमानानां विज्ञानप्राप्तानां आर्ताः अपि सन्तः, अदुवा यथासत्यं इदं इति ब्रवीमि / न अनागमः मृत्युमुखस्य अस्ति, इच्छाप्रणीताः वक्राः निकेताः कालग्रहीता: निचयनिविष्टाः पृथक् पृथक् जातिं प्रकल्पयन्ति // 144 // III सूत्रार्थ : . इस संसार में रहे हुए किंतु समझनेवाले एवं विज्ञान को प्राप्त करनेवाले मनुष्यों को ज्ञानी परमात्मा कहते हैं कि- कभी चिलातीपुत्र आदि की तरह आर्त हो तो भी वे मनुष्य यथावसर धर्म का स्वीकार करते हैं... अथवा यह सत्य हि है... ऐसा मैं कहता हुं... क्योंकि