Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 354 1 - 4 - 4 - 3 (152) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में प्रमादी मानव की मानसिक निर्बलता को बताया गया है। जैसे किवह अपने आपको विषयों से निवृत्त कर लेता है। और इन्द्रियों को भी कुछ समय के लिए वश में रख लेता है। परन्तु फिर से मोह कर्म का उदय होते ही विषयों में आसक्त हो जाता है। इसका कारण यह है कि- उसने आस्रव एवं बन्ध के मूल कारण राग-द्वेष का उन्मूलन नहीं किया। इसके अतिरिक्त उसे मोक्ष मार्ग का भी पूरा बोध नहीं है। इसी कारण वह मोहनीय कर्म का उदय होते ही अपने मार्ग से फिसल जाता है। इसलिए साधक को सब से पहिले साध्य एवं साधन का ज्ञान होना चाहिए। मार्ग का यथार्थ बोध होने पर ही; वह उस संयम पथ पर सुगमता से चल सकेगा और मार्ग में आनेवाली कठिनाईयों को भी दूर कर सकेगा। किंतु जिसे उस संयम-पथ का बोध नहीं है; वह संसार की वासना जगते ही इधर-उधर भटक जाता है। इसी कारण उसे तीर्थंकर की आज्ञा का भी लाभ प्राप्त नहीं होता। क्योंकि- उसको मोक्षपथ के प्ररूपक तीर्थंकर पर निष्ठा ही नहि है; ऐसी स्थिति में उसे तीर्थंकर की आज्ञा का लाभ कैसे मिल सकता है...?. ऐसी आत्मा को भूतकाल में बोधि लाभ न हुआ है; न अब होता है और न भविष्य में होगा। इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 152 // 1-4-4-3 जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया ? से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए सम्ममेयंति पासह, जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं पलिच्छिंदिय बाहिरगं च सोयं, निक्कमदंसी इह मच्चिएहिं कम्माणं सफलं दळूण, तओ निज्जाइ वेयवी // 152 // II संस्कृत-छाया : यस्य नास्ति पुरा पश्चात् मध्ये तस्य कुत: स्यात् ? स: खु प्रज्ञानवान् बुद्धः आरम्भोपरतः सम्यग् एतदिति पश्यत / येन बन्धं वधं घोरं परितापं च दारुणं परिच्छिन्द्य बाह्यं च स्रोतः, निष्कर्मदर्शी इह मर्येषु कर्मणां सफलं दृष्ट्वा तत: निर्याति वेदवित् // 152 // III सूत्रार्थ : जिस किसी को पूर्व जन्म में बोधिलाभ नहिं था, और भविष्यत्काल में न होगा, उसे इस मध्य के जन्म में कैसे होगा ? अतः प्रज्ञावाले, बुद्ध एवं आरंभ से निवृत्त ऐसे हे साधुजन !