Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 356 1 - 4 - 4 - 3 (152) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसलिये कर्मबंध के कारण धन-धान्य-हिरण्य-सुवर्ण-पुत्र-पत्नी आदि अथवा हिंसादि आश्रव स्वरूप बाह्य निमित्त तथा राग एवं द्वेष आदि अथवा विषयाभिलाषा स्वरूप अभ्यंतर निमित्त है... अतः इस संसार में निष्कर्म याने मोक्ष अथवा संवर को देखनेवाला मुनी बाह्य एवं अभ्यंतर कर्मबंध के कारणों का छेद करता है... क्योंकि- मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय एवं योगों के द्वारा बांधे हुए ज्ञानावरणीयादि कर्म अपना अपना फल विपाक दिखातें हि है... अतः वेद याने आगम शास्त्र को जाननेवाला मुनी कर्मो के फल-विपाक को देखकर संवर में स्थिर होता है... __ज्ञानावरणीय कर्म का फल है- ज्ञान के उपर आवरण करना... दर्शनावरणीय कर्म का फल है; दर्शन गुण को आवरण करना... वेदनीय कर्म का फल है; साता अथवा असाता का वेदन होना इत्यादि... प्रश्न- सभी कर्मो के विपाकोदय तो सभी को मान्य है, क्योंकि- प्रदेशोदय का अनुभव तो सभी प्राणी करतें हि है, और शास्त्र में तपश्चर्या से कर्मो का क्षय भी माना है, अतः कर्मो का सफलत्व याने कर्मफल का भोगना कैसे सिद्ध होगा ? उत्तर- हां ! आपकी बात ठीक है, किंतु यहां ऐसा कहने में भी कोइ दोष नहि है... क्योंकि कर्मो के प्रकृति-स्थिति आदि सभी प्रकार की बात हम नहिं करते, किंतु मात्र द्रव्य याने प्रदेशबंध की अपेक्षा से कहते हैं कि- सभी कर्म अपना अपना फल देते हैं... यद्यपि- तपश्चर्यादि से बांधे हुए सभी कर्मो का विपाकोदय नहि होता, तो भी सामान्य से प्रदेशोदय से आठों कर्मो का सफलत्व प्राणीओं में देखा जाता है... इसलिये वेद याने सकल चर एवं अचर अर्थात् स्थावर एवं जंगम पदार्थों का बोध जिस से होता है वह वेद याने आगम शास्त्र... उनको जाननेवाला अर्थात् सर्वज्ञ प्रभु के उपदेशानुसार आचारवाले मुनी कर्मो के आश्रवों के कारणों का विच्छेद करके मोक्षमार्ग में चलतें हैं... अर्थात् विषय-कषायों का त्याग करतें हैं... यह केवल मेरे अकेले का हि अभिप्राय नहि है किंतु सभी तीर्थंकरों का यह उपदेश है... यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : कुछ जीव ऐसे है; जिन्होंने न अतीत काल में सम्यक्त्व का स्पर्श किया है; और न अनागत काल में करेंगे। उन जीवों को आगमिक भाषा में अभव्य जीव कहते हैं। वे कभी भी सम्यक्त्व का स्पर्श नहीं करते। आगम में उनके लिए स्पष्ट शब्दों में कहा गया है किअतीत काल में उन्होंने सम्यक्त्व का स्पर्श नहि किया और न अनागत में करेंगे। और अतीत