Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 4 - 3 (152) 357 एवं अनागत इन दोनों काल में अनन्त - अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी होती है, अतः इनके मध्य का काल अर्थात् वर्तमान काल तो केवल एक समय का होता है। अतः जब इन दोनों काल में वे सम्यक्त्व प्राप्त कर के प्रकाश को नहीं पा सकते तो मध्य काल में पाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए ऐसे अभव्य जीव कभी भी मोक्ष मार्ग पर नहीं चल सकते। कुछ जीव ऐसे हैं कि- जिन्होंने अतीत काल में सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया परन्तु मोहनीय कर्म के उदय से वे फिर से मिथ्यात्व में गिर गए। ऐसे जीव अनागत काल में फिर से सम्यक्त्व को प्राप्त करके अपने साध्य को सिद्ध कर लेते हैं। एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श करने के पश्चात् मिथ्यात्व में चले जाने पर भी वह अधिक से अधिक अपार्द्ध पुद्गल परावर्त काल में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। एवं सम्यक्त्व को प्राप्त करके मुक्ति की ओर प्रयाण करता हैं.. __ जिस जीवों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो चुकी है; वे किसी भी प्राणी को मारने, काटने एवं पीड़ा पहुंचाने आदि आरम्भ एवं हिंसा जन्य कार्यों से निवृत्त रहते हैं। वे आस्रव के द्वार को रोकते हुए सदा संयम-साधना में संलग्न रहते हैं। इसलिए उन्हें निष्कर्मदर्शी कहा गया है। उनकी दृष्टि संवरमय होती है। वे कर्म के दुःखद फल को जानते हैं... - कर्म निश्चित हि फल युक्त होता है; कोई भी कर्म निष्फल नहीं होता। किंतु उसमें इतना अन्तर हो सकता है कि- कुछ कर्म विपाकोदय रूप से वेदन किए जाते हैं। तो कुछ कर्म प्रदेशोदय से ही अनुभव कर लिए जाते हैं। कर्म आगमन के मार्ग को आस्रव कहते हैं। मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद और योग इन पांच कारणों से कर्म का बन्ध होता है। अतः जो व्यक्ति जीवाजीव आदि पदार्थों का ज्ञाता है; वह आस्रव से निवृत्त होने का प्रयत्न करता है। तत्त्वों के जानने वाले व्यक्ति को प्रज्ञावान् कहते हैं। वह आगम के द्वारा संसार एवं संसार परिभ्रमण के कारण कर्म तथा कर्म-बन्ध के कारण आश्रवों को भली-भांति जानता है। प्रस्तुत सूत्र में आगम के लिए वेद शब्द का प्रयोग किया गया है। वेद का अर्थ है-जिसके द्वारा संपूर्ण चराचर पदार्थों का ज्ञान हो; उसे वेद कहते हैं और वे सर्वज्ञोपदिष्ट आगम हैं। उसके परिज्ञाता उसके अनुरूप आचरण करने वाले साधक कहलाते हैं। निष्कर्ष यह निकला कि- आत्मविकास एवं साध्य को सिद्ध करने का मूल सम्यक्त्व है। अतः मुमुक्षु पुरुष को सम्यक्त्व प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस सम्बन्ध में सभी तीर्थंकरों का एक हि मत है, इसी बात को बताते हुए सूत्रकार . महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...