Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 336 1 - 4 - 2 - 4 (146) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गया है। दुनिया में अनेक विचारक हैं। परन्तु तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान न होने से उन सब की विचारधारा परस्पर टकराती है। इसलिए शाक्य श्रमण- बौद्ध, सांख्य आदि मत के भिक्षु और ब्राह्मणों-वैदिक धर्म को मानने वालों का परस्पर संघर्ष होता रहता है। भागवत के मानने वालों का कहना है कि- 25 तत्त्वों का परिज्ञान कर लेने से जीव का मोक्ष हो जाता है। यह आत्मा सर्वव्यापी, निष्क्रिय निर्गुण और सचेतन है, तथा संसार में निर्विशेष सामान्य ही एक तत्त्व है। वैशेषिक दर्शन की मान्यता है कि- द्रव्य आदि 6 पदार्थों का ज्ञान कर लेने से मोक्ष हो जाता है। यह आत्मा समवाय, ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न, द्वेष आदि गुणों से युक्त है और सामान्य एवं विशेष दोनों परस्पर निरपेक्ष और स्वतन्त्र तत्त्व हैं। बौद्ध विचारकों ने आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं माना। उनके विचार में सभी पदार्थ क्षणिक हैं। आत्मा भी प्रतिक्षण नई-नई उत्पन्न होती है। और पुरानी आत्मा का नाश होता. . रहता है। इस प्रकार वह आत्मा अनित्य है; अशाश्वत है। अर्थात् संपूर्ण विश्व क्षणिक है... मीमांसक सर्वज्ञ एवं मुक्ति को नहीं मानतें। कुछ विचारक पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय पदार्थों को सजीव नहीं मानते। कुछ लोग वनस्पति को निर्जीव मानते हैं। कुछ नास्तिक शरीर के अतिरिक्त आत्मा की सत्ता को ही नहीं मानते। वैदिक लोगों का कहना है कि- हमारे महर्षि सभी जीवों को जानते हैं। उनका उपदेश हैं कि- वेद विहित यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठान में किसी भी प्राणी का वध करना या उसके अंगों का छेदन-भेदन करने में दोष नहीं हैं। क्योंकि- वेदविदित यज्ञ क्रिया से उन जीवों का कल्याण होता है, इन्हें स्वर्ग आदि शुभ गति की प्राप्ति होती है। . वेद विहित यज्ञ में की गई हिंसा; हिंसा नही हैं। वह मांस अभक्ष्य नहीं, किंतु भक्ष्य है। जो व्यक्ति वह मांस नहीं खाता है, वह प्रेत्य होता है। श्राद्ध और मधुपर्क में आमन्त्रित व्यक्ति यदि मांस नहीं खाता है, तो वह मरकर 21 जन्म तक पशु होता हैं। इस प्रकार वेद विहित हिंसा में पाप नहीं लगता। उसमें धर्म ही होता है... इत्यादि... अब जिनमत कहता है कि- ऊपर कहे गये कथन आर्यत्व का नहीं, किंतु अनार्यत्व का संसूचक है। क्योंकि- आर्य पुरुष किसी भी स्थिति में हिंसा में धर्म नहीं मानते हैं। हिंसाहिंसा ही है, वेद आदि धर्म ग्रंथों में उल्लेख होने मात्र से वह हिंसा धर्म-पून्य नहीं हो सकती। अपने स्वाद का पोषण करने एवं मनोवृत्ति की पूत्ति के हेतु किसी प्राणी को मारना या परिताप देना पाप ही है। ऐसी स्थिति में धर्म के नाम पर हिंसा करना तो पाप ही नहीं, किंतु महापाप है, पतन की पराकाष्ठा है। क्योंकि- धर्म सभी प्राणियों का कल्याण करने वाला है, सब को शान्ति देने वाला है। उसके नाम पर जीवों को त्रास देना धर्म नहि किंतु अधर्म हि है।