Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 350 // 1 - 4 - 4 - 1 (150) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : प्रव्रज्या के प्रारंभ में अविकृष्ट तपश्चर्या के द्वारा शरीर को थोडा कष्ट दें... उसके बाद सूत्र-सिद्धांत के अर्थ का परिणमन होने पर विकृष्ट तपश्चर्या से शरीर को विशेष कष्ट दें... तथा उसके बाद शिष्यवर्ग को सूत्र-सिद्धांत का अर्थ-सार देकर मासक्षपण अर्धमासक्षपण के द्वारा शरीर एवं कर्मो को निश्चित प्रकार से क्षय करने का मार्गदर्शन दें... अर्थात् कर्मो के क्षय के . लिये विविध तपश्चर्या करें... पूजा, लाभ एवं प्रख्याति के लिये तपश्चर्या का विधान नहि है, क्योंकि- ऐसा करने से तो तपश्चर्या निरर्थक होती है; इसलिये विभिन्न प्रकार से व्याख्या करतें हैं कि- कर्म का हि अथवा कार्मण शरीर का आपीडन, प्रपीडन एवं निष्पीडन करें... अथवा आपीडन याने सम्यग्दर्शनादि 4-5-6-7 गुणस्थानकों में कर्मो का आपीडन होता है... अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण (8-9) गुणस्थानक में कर्मो का प्रपीडन होता है... तथा सूक्ष्मसंपराय (10) गुणस्थानक में कर्मो का निष्पीडन होता है... अथवा उपशम श्रेणी में कर्मो का आपीडन होता है, क्षपकश्रेणी में कर्मो का प्रपीडन होता है, तथा शैलेशी-अवस्था में कर्मो का निष्पीडन होता है... ___मुनी धन-धान्य-हिरण्य-पुत्र-एवं कलत्र (स्त्री) आदि पूर्व के संयोगों का त्याग करके... अथवा पूर्व याने अनादि के संसार की वासना का अभ्यास, उसका जो संयोग, उस संयोग का त्याग करके तथा उपशम याने इंद्रिय एवं नोइंद्रिय (मन) के विकारों का जय अथवा संयम... ऐसे उस उपशम को प्राप्त करके... यहां सारांश यह है कि- असंयम का त्याग करके तथा संयम का स्वीकार करके तपश्चर्या आदि से आत्मा का अथवा कर्म का आपीडन, प्रपीडन एवं निष्पीडन करें... क्योंकि- कर्मो के आपीडन आदि के लिये उपशम की प्राप्ति आवश्यक है तथा उपशम की प्राप्ति में हि प्राणी को अविमनस्कता होती है... इसलिये कर्मो के क्षय के लिये असंयम का परित्याग, और असंयम के परित्याग में हि संयम की स्थिति अवश्य होती हि है... और संयमाचरण में चित्त का वैमनस्य कभी नहि होता... चित्तवैमनस्य याने विषयभोगोपभोग एवं कषाय आदि में अथवा अरति में मन (चित्त) का लीन होना... अर्थात् संयमाचरण में ऐसा मानसिक वैमनस्य नहि होता... __ अविमनस्कवाले साधु हि कर्मो के विनाश में समर्थ होतें हैं; अत: जो वीर पुरुष हैं... वे सदा संयम-जीवन की मर्यादा से संयमानुष्ठान में रत याने लीन रहते हैं... तथा पांच समितियों से समित होते हैं, और ज्ञानादि गुणो से सहित होते हैं तथा सदा-सर्वदा स्वीकृत संयमानुष्ठान में यत्नवाले होते हैं... प्रश्न- संयमानुष्ठानके लिये बार बार उपदेश क्यों देते हो ?