Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1 - 4 - 2 - 3 (145) 327 III सूत्रार्थ : - यहां कितनेक जीवों को संसार के भिन्न भिन्न स्थानो का परिचय होता है... तथा नीचे नरक आदि में होनेवाले स्पर्शों का संवेदन करतें हैं... अतिशय क्रूर कर्मो से बहोत समय पर्यंत वहां रहते हैं... किंतु अतिशय क्रूर कर्म नहि करनेवाले प्राणी नरकादि गतिओं में बहोत समय तक नहि रहते हैं... इस प्रकार कितनेक श्रुतज्ञानी कहतें है... तथा केवलज्ञानी भी कहतें हैं... IV टीका-अनुवाद : इस चौदह राजलोक स्वरूप लोक में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायवाले कितनेक प्राणीओं को नरकगति एवं तिर्यंच गति आदि कष्ट-पीडावाले स्थानो में बार बार गमनागमन से कष्टका परिचय होता है... तथा इच्छाप्रणीत आदि पूर्वोक्त स्वरूपवाले संसारी प्राणी तथा कुतीर्थिक साधुलोग भी इंद्रियों के विषय भोगों की कामना के साथ विषयभोगों के उपभोग में मग्न होकर औद्देशिक आदि दोषवाले आहारादि को निर्दोष मानते हुए नरक आदि स्थानो में बार बार उत्पन्न होकर, नरक आदि गति में होनेवाले दुःखदायक कठोर स्पर्शों का संवेदन करतें हैं... . जैसे कि- लोकायतिक याने नास्तिक (चार्वाक) मतवाले कहते हैं कि- हे सुंदर आंखोवाली सुंदरी ! खाओ, पीओ, क्योंकि- हे सुंदर अवयववाली सुंदरी ! जो काल बीत जाता है, वह वापस नहि आता... तथा यह शरीर तो मात्र पांचभूतों से बना कलेवर हि है... तथा सावध योगों से आरंभ-समारंभ करनेवाले वैशेषिक मतवाले भी कहते हैं किअभिषेक, उपवास, ब्रह्मचर्य, गुरुकुलवास, वानप्रस्थाश्रम, यज्ञ, दान, मोक्षण, दिशा, नक्षत्र, मंत्र, काल और नियम इत्यादि के विज्ञान से मोक्ष होता है... तथा अन्य भी सावधयोगों का आचरण करनेवाले मतांतरीय लोग इसी प्रकार और भी कुछ अन्य बातें करतें हैं... प्रश्न- क्या इच्छाप्रणीत आदि विशेषणवाले सभी जीव नरक आदि स्थानों में उत्पन्न होकर नरक आदि के कठोर स्पर्शों का संवेदन करतें हैं ? कि- तद्योग्य कर्म करनेवाला कोइक हि प्राणी नरकादि के कठोर स्पर्शों का अनुभव करता है ? उत्तर- ना ! सभी प्राणी नहि, किंतु- जो जो प्राणी वध-बंधन आदि अतिशय क्रूर कर्म करतें हैं, वे हि नरकादिस्थानो में वैतरणीनदी में तैरना, असिपत्र वन में पत्तों के अभिघात से छेदन, तथा शाल्मली वृक्ष को आलिंगन करना इत्यादि स्वरूप से होनेवाली विरूप