Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 2 - 4 (146) 333 ऐसा पुछने पर यदि वे ऐसा कहे कि- साता... तब तो प्रत्यक्ष हि आप के वचन में आगम .एवं लोकव्यवहार को बाधा होती है... और यदि वे परमतवाले ऐसा कहे कि- असाता... तब तो अपनी हि बातों से बंधे हए उन प्रवादीओं को ऐसा कहें कि- हां ! आप ठीक कहते हो ! जैसे कि- न केवल आपको हि असाता दुःख स्वरूप है, किंतु संसार के सभी प्राणीओं को असाता, दुःख स्वरूप हि है, और मन को इष्ट नहि है... तथा अनिर्वृत्तिस्वरूप यह असाता हि अपरिनिर्वाण एवं महाभय स्वरूप है तथा दु:ख स्वरूप है... ऐसा समझकर सभी प्राणीओं को मारना नहि चाहिये... इत्यादि कहें... तथा प्राणीओं को मारने में दोष है... कर्मबंध है... अतः एव संसार में परिभ्रमण है... इत्यादि सविस्तार कहें... अब जो लोग ऐसा कहतें हैं कि- “प्राणीओं के वध में दोष नहि है" वे अनार्यवचन हैं... यहां “इति'' पदं अधिकार की समाप्ति का सूचक है... तथा ब्रवीमि पद का अर्थ यह है कि- सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य जंबू आदि श्रोताओं को कहतें है... इस प्रकार अपने हि वाणी के बंधन के द्वारा प्रवादिओं की अनार्यता सिद्ध की... यहां रोहगुप्त मंत्री की कथा स्वयं नियुक्तिकार हि नियुक्ति की गाथाओं से कहते हैं वह इस प्रकार रोहगुप्त मंत्री आगम के सद्भाव को जानते हैं, मध्यस्थता का अवलंबन करतें हैं और परीक्षा के द्वारा कुतीर्थिकों का निराकरण करतें हैं; इत्यादि बात अब नियुक्ति की गाथाओं से कहते हैं.... नि. 227 ___ क्षुल्लक (लघु)-साधु को श्लोक का एक चरण (पाद) देकर रोहगुप्त मंत्री ने गुप्त रीति से अन्यलिंगी याने प्रवादीओं की परीक्षा की... वह इस प्रकार- चंपा नगरी में सिंहसेन राजा के रोहगुप्त नाम के महामंत्री थे... और वह जिन-मत से भावित अंत:करण (चित्त) वाला है, तथा सद् एवं असद् वाद को जाननेवाला है... अब एक बार सभा मंडप में बैठे हुए राजा ने धर्म के विचार का प्रस्ताव रखा... कि- जिसको जो अभिमत याने इष्ट हो, वह उसे अच्छी तरह से कहें... तब वह रोहगुप्त मंत्री तो मौन हि रहे... तब राजा ने कहा कि- आप धर्म-विचार के बाबत में क्यों कुछ भी नहि बोलतें ? तब वह रोहगुप्त मंत्री बोले कि- हे राजन् ! इन पक्षपातवाले वचनों से क्या ? आप सभी लोग विचार के परामर्श द्वारा स्वतः हि धर्म की परीक्षा करें... ऐसा तीर्थिकों को कहकर और राजा की अनुमति लेकर “सकुण्डलं वा वदनं नवेति" यह गाथा का एक चरण पुरे नगर में उद्घोषित करवाया... और संपूर्ण गाथा भंडार में रखी... तथा नगरी में ऐसी