Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 328 1 - 4 - 2 - 3 (145) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दशा को अनुभव करते हुए तमस्तम आदि सातों नर को में रहते हैं... तथा जो प्राणी पंचेंद्रिय प्राणीओं के वध-बंधन आदि स्वरूप क्रूर कर्म नहि करतें, वे अतिशय वेदनापीडा से भरे हुए नरक आदि स्थानों में उत्पन्न नहि होतें.. यह बात चौद पूर्वधर श्रुतकेवली आदि ज्ञानी पुरुष कहते हैं... सभी पदार्थों के स्वरूप को प्रगट करनेवाला ज्ञान जिन्हों के पास है; वे ज्ञानी... अतः चौदपूर्वधर आदि महर्षि वह कहतें हैं कि- जो दिव्यज्ञानी = केवलज्ञानी परमात्मा कहतें हैं... तथा निरावरण ज्ञानवाले केवलज्ञानी जो कहते हैं वह हि चौद पूर्वधर श्रुतकेवली कहते हैं... यह बात गत-प्रत्यागत स्वरूप सूत्र से हि कहतें हैं... ज्ञानी याने केवलज्ञानी जो कहतें है अथवा श्रुतकेवली जो कहतें हैं वह यथार्थ हि होता है... क्योंकि- वे यथार्थभाषी है... ___ यहां केवलज्ञानीओं को सभी पदार्थ प्रत्यक्ष हि है... जब कि- श्रुतके वली, केवलज्ञानीओं के उपदेश के द्वारा हि प्रवृत्त होते हैं, अतः दोनों के वचन में एकवाक्यता (यथार्थता) हि होती है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- प्रमादी जीव विषय-कषाय में आसक्त रहता है। अपनी अतृप्त वासना को पूरी करने की भावना से अनेक जीवों को दु:ख एवं कष्ट देता है। अपने भोगोपभोग के लिए अनेक प्राणियों का निर्दयता पूर्वक वध करता है। इस प्रकार क्रूर कर्म में प्रवृत्त होकर पाप कर्म का संग्रह करता है और परिणाम स्वरूप नरक-तिर्यंच आदि नीच योनियों में जन्म लेता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति प्रमाद का सेवन नहीं करते, वे आरम्भ-समारम्भ आदि दोषों से भी बचे रहते हैं और परिणाम स्वरूप नरक आदि गतियों की वेदना को भी नहीं प्राप्त करतें... इससे यह स्पष्ट होता है कि- संसार परिभ्रमण का कारण कर्म है। प्रमाद के आसेवन से पाप कर्म का बन्ध होता है। और फलस्वरूप नरक आदि योनियों में महावेदना का संवेदन करना होता है। यह कथन सर्वज्ञ पुरुषों ने अपने निरावरण ज्ञान में देखकर किया है। और उसी के अनुरूप श्रुत केवलियों ने भी कथन किया है। श्रुतकेवलियों की निरूपण शक्ति सर्वज्ञों जैसी ही है। अतः इस बात को मानने में किसी प्रकार का संशय नहीं करना चाहिए। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- जब सर्वज्ञ एवं श्रुत केवली की तत्त्व निरूपण शैली एक समान है; तब फिर सर्वज्ञता एवं छद्मस्थता में क्या अन्तर रहा ? इसका समाधान यह है कि- सर्वज्ञ का ज्ञान निवारण होता है। अत: वे विना किसी भी सहाय स्वयं.अपनी आत्मा से लोक के समस्त पदार्थों को देखते-जानते हैं। परन्तु श्रुत केवली का ज्ञान निरावरण नहीं