Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 320 1 - 4 - 2 - 1 (143) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्वरूप कहीयेगा... जीव अजीव आदि पदार्थों को जाननेवाले तीर्थंकर एवं गणधरों ने लोक याने जीवों को पहचानकर सभी जीवों के आत्महित के लिये विभिन्न प्रकार से धर्मोपदेश कहा है... इसी प्रकार तीर्थंकर की आज्ञा का पालन करनेवाले चौद पूर्वघर आदि स्थविर मुनिजन भी जीवों के आत्महित के लिये धर्मोपदेश कहते हैं यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : आस्रव एवं संवर के लिए स्थान एवं क्रिया की अपेक्षा शुभ एवं अशुभ भावना का अधिक मूल्य है। क्योंकि- जो स्थान कर्मबन्ध का कारण है, वही स्थान विशुद्ध भावना वाले साधक के लिए निर्जरा, संवर एवं संयम साधना का कारण बन जाता है। और जो स्थान निर्जरा, संवर एवं संयम-साधना का है; वह हि परिणामों की अशुद्धता के कारण कर्मबन्ध का कारण बन जाता है। इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि मनुष्य लोक में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है किजहां आम्रव, बंध, संवर एवं निर्जरा की साधना नहीं की जा सकती है। भावना के परिवर्तित होते ही आस्रव का स्थान संवर-साधना का स्थान बन जाता है और संवर की साधना भूमि भी आस्रव का स्थान ग्रहण कर लेती है। तो आस्रव एवं संवर भावना-परिणामों की अशुद्ध एवं विशुद्ध भावना पर आधारित है। इस चतुर्भंगी को उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया जाता १-सम्यग्दृष्टि साधक जब वैराग्य भाव से आत्म-चिन्तन में लगता है, तब आस्रवकर्मबन्ध का स्थान भी उसके लिए संवर या निर्जरा का स्थान बन जाता है। भरत चक्रवर्ती आरिसाभवन महल में शृंगार करने गया था। शृंगार करते करते अकस्मात् उनकी अंगुली में से मुद्रिका गिर पड़ी। अंगुली की वास्तविक परिस्थिति नजर में आइ... बस भावना परिवर्तित हो गई। बाह्य सजावट में लगा हुआ ध्यान आत्म-चिन्तन की ओर मूड गया और धीरे-धीरे आत्मा पर से कर्म का आवरण भी हटता गया और परिणाम स्वरूप वहां शीशमहल में हि भरत चक्रवर्ती को निरावरण-केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। २-अज्ञानी व्यक्ति दुर्भावना के वश निर्जरा के स्थान में पाप कर्म का बन्ध कर लेता है। एक दिन नागश्री ब्राह्मणी ने भूल से कड़वे तुम्बे की सब्जी बना ली। जब चाखने पर उसे तुम्बे की कटुकता का ज्ञान हुआ तो उस ने उसे एक ओर रख दिया और तुरन्त दूसरी सब्जी बना ली। कुछ देर पश्चात एक-एक महीने की तपस्या करने वाले धर्मरुचि मुनि उसके यहां भिक्षार्थ आए। तब उसने कडुवे तुंबे की सब्जी मुनि के पात्र में डाल दी। मुनि को दिया