Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 2 - 1 (143) // 317 लीमडे के कडवे रस से वासित मुखवाले को दुध एवं शक्कर आदि भी कडवे हि लगते है... * तथा संसार-समुद्र को जाननेवाले, विषयों की अभिलाषा को दूर करनेवाले तथा “संसार के सभी पुद्गल पदार्थ अपवित्र एवं दुःखों के कारण हैं" ऐसा चिंतन करनेवाले तथा संवेगवाले सम्यग्दृष्टि जीवों को जो वस्तु-पदार्थ अन्य सामान्य जीवों को तत्त्वज्ञान के कारण से संसार का कारण होते हैं, वे हि पदार्थ साधुओं को मोक्ष के लिये होते हैं... यह यहां भावार्थ है... यह हि बात प्रतिषेध के साथ गत-प्रत्यागत प्रकार से कहते हैं कि- जितने अनाश्रव हैं उतने हि अपरिश्रव हैं अनाश्रव याने व्रत-नियम, वे भी अशुभ कर्मो के उदय से होनेवाले अशुभ अध्यवसायों के कारण से अपरिश्रव याने कर्मबंध के कारण होते हैं... जैसे कि- कोंकण देश के आर्य किसान आदि पुरुषों की तरह... तथा जो जो अपरिश्रव हैं वे सभी अनाश्रव होते हैं... अपरिश्रव याने कर्मबंध के स्थान... अर्थात् कोइक विशेष कारण को लेकर प्रवचन (जिनशासन) को उपकार करनेवाले सावध कार्य भी कणवीर की लता को घुमानेवाले क्षुल्लक की तरह अनाश्रव याने कर्मबंध के कारण नहि होते... . अथवा आवन्ति याने अर्थात् कर्मबंध के कारण तथा परिश्रवन्ति याने परिश्रवा अर्थात् कर्मो की निर्जरा के कारण... यहां चउभंगी होती है... 1... मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय एवं योगों के द्वारा जो जो कर्मो के आवा याने बंधक हैं, वे हि अन्य जीवों को परिश्रवा याने कर्मो की निर्जरा के कारण बनते हैं... इस पहले भंग में चारों गति के सभी संसारी जीवों का समावेश होता है... क्योंकि- सभी संसारी जीवों को प्रतिक्षण कर्मबंध एवं कर्मनिर्जरा का सद्भाव होता है... तथा जो जो आश्रव है वे सभी अपरिश्रव हैं... इस दुसरे भाग में कोई भी जीव का समावेश नहि होता... क्योंकि- कर्मबंध निर्जरा के अभाव में नहिं होता... तथा जो जो अनाश्रव हैं वे सभी परिश्रव हैं... इस तीसरे भंग में अयोगी केवलीओं का समावेश होता है तथा जो जो अनाश्रव हैं; वे सभी अपरिश्रव हैं; इस चौथे भंग में सिद्धात्माओं का समावेश होता है... क्योंकि- सिद्ध-परमात्मा को आश्रव भी नहि हैं और निर्जरा भी नहि हैं... यहां इस आचारांग सूत्र में पहले और चौथे भंग का ग्रहण कीया है... और उनका ग्रहण करने से बीचके दो भंगों का ग्रहण, अवश्यमेव हो हि जाता है... यहां कहे गये पदों (वाक्यों) का जैसे कि- “ये आश्रवाः... इत्यादि पदों का" अन्य को अर्थबोध हो इसलिये शब्दों का प्रयोग कीया जाता है तथा इन पदों से वाच्य ऐसे अर्थों