Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 0 - 0 299 लोक प्रशंसा को पाया... यह बात जानकर वीरसेन राजकुमार ने राजा को कहा कि- मैं भी धनुर्विद्या का अभ्यास करूं... तब राजा ने भी उसके आग्रह को जानकर धनुर्विद्या के अभ्यास की अनुमति दी... अब वह वीरसेन राजकुमार उपाध्याय के उपदेश से और अपनी प्रज्ञा की तीक्ष्णता से तथा अभ्यास विशेष से शब्दवेधी धनुर्धर हुआ... अब यौवन वय को पाये हुए तथा अपने अभ्यस्त किये हुए धनुर्वेद विज्ञान की क्रिया से तथा आंख है या नहि है इसकी परवाह न करनेवाले उस राजकुमार ने अपनी शब्दवेधित्व कला के स्वाभिमान से एक बार जब शत्रु राजा के साथ युद्ध का प्रसंग उपस्थित हुआ तब वीरसेन ने राजा के पास युद्ध के लिये प्रार्थना की... राजा ने भी वीरसेन राजकुमार की धनुर्विद्या तथा आत्म विश्वास देखकर युद्ध में जाने के लिये अनुमति दी... अब युद्ध-मैदान में वीरसेन राजकुमार ने शब्दानुवेधी धनुर्विद्या से जब शत्रु-सेनाका विनाश कीया... इस समय शत्रुराजा के सैनिको ने वीरसेन राजकुमार के अंधपने को जानकर मौनपने को धारण करके उस वीरसेन कुमार को पकडकर बंधन में कीया... अब सुरसेन राजकुमार ने जब यह बात जानी तब राजा को कहकर तीक्ष्ण सेंकडो बाणो की वृष्टि करके शत्रुसेना से वीरसेन को बंधन मुक्त कीया... इस प्रकार विद्या-ज्ञान एवं क्रियाका अभ्यास होने पर भी आंखों के अभाव में वीरसेन राजकुमार अभीष्ट कार्य की सिद्धि में सफल न हुए.... . नि. 220 यह बात अब नियुक्तिकार उपसंहार करते हुए कहते हैं... क्रियानुष्ठान करनेवाला भी तथा स्वजन धन समृद्धि एवं सुखोपभोग का त्याग करनेवाला भी तथा दुःख-कष्टों को छाती .देनेवाला भी अंध पुरुष शत्रुसेना को जीत नहि शकता... इस प्रकार दृष्टांत कहकर दृष्टांत का अर्थघटन करतें हैं... नि. 221 निवृत्ति याने पांच यम एवं पांच नियम आदि को करनेवाला भी, तथा स्वजन, धन, एवं भोगोपभोग का त्याग करनेवाला भी, तथा पंचाग्नि तपश्चर्या आदि से दुःख-कष्टोंको उर: याने छाती देनेवाला भी मिथ्यादृष्टि जीव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहिं होता... अर्थात् सम्यग्दर्शन के अभाव में अंधकुमार की तरह अपने कार्य की सिद्धि में समर्थ नहि होतें... हां ! यदि ऐसा है, तो अब क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर आगे की गाथा में कहते हैं... नि. 222 मोक्षमार्ग के मूल स्वरूप सम्यग्दर्शन के बिना कर्मो का क्षय संभव हि नहि है, इसलिये