Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 306 1 - 4 - 1 - 1 (139) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन धर्म पुरुषार्थ की प्रधानता दीखाते हुए उस धर्म के विशेषण कहते हैं... वे इस प्रकारशुद्धः याने पाप के अनुबंध से रहित... अर्थात् शाक्य एवं धिग्जाति याने क्षुद्र ब्राह्मणकी तरह एकेंद्रिय एवं पंचेंद्रिय जीवों के वध की अनुमति स्वरूप कलंकवाला न हो... तथा नित्य याने अविनाशी... क्योंकि- पांच महाविदेह क्षेत्र में सदा धर्म होता हि है... तथा शाश्वत याने शाश्वत गति ऐसी मोक्षगति का कारण होनेसे शाश्वत... अथवा नित्य पने के कारण से हि शाश्वत... अर्थात् भव्यत्व की तरह नित्य होने से सर्वथा अभाव स्वरूप नित्य नहि है... किंतु सद्भाव स्वरूप नित्य है... (जैसे कि- घटाभाव याने घट का सर्वथा न होना... यहां सारांश यह है कि- वस्तु के न होने में भी नित्य विशेषण होता है) किंतु यह धर्म सद्भूत ऐसा शाश्वत नित्य है... तीनो काल में रहनेवाला है... तथा इस लोक को दुःख-समुद्र में डूबा हुआ देख करके, उनके उद्धार के लिये खेदज्ञ याने जीवों के दुःखों को जाननेवाले तीर्थंकर प्रभुजी ने यह धर्म कहा है... इस बात से श्री गौतमस्वामीजी ने अपनी मनीषिका का परिहार कीया है एवं शिष्य की मति में धर्म की स्थिरता-श्रद्धा प्राप्त करवाइ है... इस सूत्र में कहे गये अर्थ को हि नियुक्तिकार महर्षि सूत्रस्पर्शिक-नियुक्ति की दो गाथाओं से कहते हैं... अतीतकाल में जो तीर्थंकर हो गये, तथा वर्तमानकाल में जो भी जिनवर विद्यमान हैं तथा भविष्यत्काल में भी जो भी तीर्थंकर होएंगे... वे सभी अहिंसा का हि उपदेश देते थें, देतें हैं, ओर देएंगे... कि- पृथ्वीकाय आदि छ जीवनिकाय का वध न करें, अन्य से वध न करावें, तथा वध करनेवाले अन्य का अनुमोदन भी न करें... इस प्रकार यहां सम्यक्त्व अध्ययन की यह नियुक्ति है... ___ तीर्थंकर परमात्मा परोपकारी होने से उनका उपदेश स्वभाव से हि सूर्य के प्रकाश की तरह चारों और फैलता है... अर्थात् लोग जगते हैं या नहिं इत्यादि विशेष की अपेक्षा रखे बिना हि अपने शाश्वत नियमानुसार हि परमात्मा प्रवृत्त होते है... वह इस प्रकार- उत्थित याने धर्मानुष्ठान के लिये ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र में उद्यमवाले हो... या उनसे विपरीत अनुत्थित याने धर्मानुष्ठान में उद्यम नहि करनेवाले ऐसे सभी जीवों के लिये सर्वज्ञ त्रिलोकस्वामी परमात्मा ने धर्म कहा है... यह बात सभी जगह जानीयेगा... अथवा तो द्रव्य से उत्थित याने खडे हुए तथा अनुत्थित याने बैठे हुए... अर्थात् धर्म पुरुषार्थ के लिये उत्थित ऐसे ग्यारह गणधरों को श्री वर्धमानस्वामीजी ने धर्म कहा... तथा उपस्थित याने धर्म को सुनने के लिये या स्वीकारने के लिये तत्पर गणधरों के जीव... तथा अनुपस्थित याने इससे विपरीत अर्थात् धर्म को नहि सुननेवाले एवं नहि स्वीकारनेवाले अन्य लोग...