Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका // 1 - 3 - 4 - 4 (137) // 291 प्रकर्षता होती है या नहि ? उत्तर देते हुए कहते हैं कि- प्रकर्षता होती है... वह इस प्रकारद्रव्य, शस्त्र, कृपाण याने तरवार आदि... और वह लोहे में कीये हुए संस्कार विशेष से पर से पर याने तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होते हैं... अथवा तो शस्त्र याने उपघात = विनाश करनेवाला, अतः पीडा करनेवाले एक शस्त्र से पीडाकारी अन्य शस्त्र उत्पन्न होता है... और उससे भी अपर याने अन्य शस्त्र... जैसे कि- कृपाण याने तरवार के घाव से वायु का प्रकोप होता है, और वायु के प्रकोप से मस्तक-पीडा, और मस्तक-पीडा से ज्वर याने बुखार... और उस ज्वर से मुखशोष तथा मूर्छा आदि... तथा भावशस्त्र की परंपरा तो इस सूत्र से आगे के सूत्र से सूत्रकार स्वयं हि प्रत्याख्यान = परिज्ञाके द्वारा कहेंगे... तथा जिस प्रकार शस्त्र की प्रकर्षगति एवं परंपरा होती है, इसी प्रकार अशस्त्र में नहि है... जैसे कि- अशस्त्र याने संयम... वह “परेण परं" याने प्रकर्षगति को प्राप्त... वह इस प्रकार- सामायिक चारित्र, हि पृथ्वीकाय आदि में समभाव सुरक्षा-अहिंसा-भाव रखता है... अथवा शैलेषी-अवस्थावाले संयम से और कोइ “पर” याने अधिक संयम नहि है... क्योंकिउन (अयोगिकेवली) से आगे अधिक कोइ गुणस्थानक हि नहि है... जो साधु प्रत्याख्यान-परिज्ञा से क्रोध को जानता है अर्थात् क्षय करता है वह “अपर" याने मान आदि को भी जानता है... अर्थात् स्थिति एवं विपाक से मान आदि के क्षय को भी जानता है... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : जैनदर्शन विकासवादी है। वह आत्मा के स्वतन्त्र विकास पर विश्वास करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से विकास करके निर्वाण पद को प्राप्त करता है। प्रस्तुत सूत्र में इसी विकासश्रेणि का क्रम बताया गया है। जब साधक क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है; तो वह अनन्तानुबन्धी कषाय, सम्यक्त्वमोहनीय; मिथ्यात्वमोहनीय ओर मिश्रमोहनीय इन सात प्रकृतियों को क्षय करके क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। उक्त गुणस्थान से ही उसका विकास आरम्भ होता है, दृष्टि में एक नया परिवर्तन आता है। उसका चिन्तन, मनन अब बाह्याभिमुखी नहीं; किंतु आत्माभिमुख होता है। इसके बाद वह अप्रत्याख्यानी कषाय, प्रत्याख्यानी कषाय एवं संज्वलन के क्रोध; मान, माया और लोभ का क्रमशः क्षय करता हुआ पांचवें, छठे, सातवें आदि गुणस्थानों को लांघकर तेरहवें गुणस्थान में पहुंचता है और वहां से चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त करके वहां समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय करके और मन, वचन एवं काय का निरोध करके निर्वाण पद को प्राप्त करता है। यद्यपि कुछ साधक एक भव में समस्त कर्मों को क्षय करने में समर्थ नहीं