Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-2-1-9 (71) 75 3 अनुष्ठान करें ? या अन्य प्राणी भी ? उत्तर- अन्य प्राणी भी अवसर को प्राप्त करके आत्महित के अनुष्ठान अवश्य करे... यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधक को सावधान करते हुए कहा गया है कि- हे साधक ! तू संसार की अवस्था को जान-समझकर तथा सम्यक्तया अवलोकन करके आत्म चिन्तन में संलग्न हो। क्योंकि- अभी तुम्हारे शरीर पर वृद्धावस्था एवं रोगों ने आक्रमण नहीं किया है, तुम्हारा शरीर स्वस्थ है, इन्द्रियें भी सशक्त हैं, ऐसी स्थिति में बहुमूल्य समय को व्यर्थ में नष्ट मत कर। क्योंकि- इस यौवन अवस्था के बीत जाने पर इन्द्रियों की शक्ति कमजोर हो जाएगी, अनेक रोग तेरे शरीर पर आक्रमण करके उसे शक्ति हीन बना देंगे। फिर तू चाहते हुए भी कुछ भी पून्यकार्य नहीं कर सकेगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि- धर्म-साधना के लिए स्वस्थ शरीर एवं सशक्त इन्द्रियों का होना आवश्यक है। यह सब सापेक्ष साधन हैं। निश्चय दृष्टि से निर्वाण प्राप्ति के कारण रूप क्षायिक भाव की प्राप्ति के लिए क्षयोपशम भाव सहायक है, और शरीर की नीरोगता, साता वेदनीय कर्म के उदय से है, तो भी यहां जो यौवन वय को साधना में लगाने को कहा है, उसका कारण यह है कि- यह शरीर क्षायिक भाव प्राप्ति का भी परंपरा से साधन है और साधना की सिद्धि के लिए साधनों का स्वस्थ एवं सशक्त होना जरूरी है। इसलिए साधना काल में स्वस्थ शरीर भी अपेक्षित है। अतः प्राप्त समय को सफल बनाने के लिए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... I' सूत्र // 9 // // 71 // 1-2-1-9 - खणं जाणाहि पंडिए // 71 // II संस्कृत-छाया : क्षणं जानीहि पण्डित ! // 71 // III सूत्रार्थ : हे मुनिराज ! अवसर को जानो-पहचानो // 71 // IV टीका-अनुवाद : क्षण याने धर्म के अनुष्ठान का अवसर... और वह अवसर आर्यदेश, उत्तमकुल में जन्म इत्यादि है... वृद्धावस्था, बाल अवस्था और रोग अवस्था के अभाव में हे आत्मज्ञ