Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 1041 -2 - 3 - 1 (78) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्थानों में जीव कर्मों के कारण से उत्पन्न होता है... और बल, रूप, लाभ आदि मदस्थानों की तो असमंजसता याने अनिश्चितता हि है तो अब क्या करें ? इस प्रश्न के उत्तर में कहतें हैं कि- जाति लाभ कल ऐश्वर्य बल रूप तप और श्रुत इन आठ मदस्थानों में से कोई भी एक की भी इच्छा न करें... स्पृहा भी न करें... क्योंकि- उच्च एवं नीच गोत्र के सभी स्थानों में जीव अनेक बार उत्पन्न हुआ है... ऐसा जानकर कौन बुद्धिशाली मनुष्य मानवादी होकर ऐसा बोले कि- “मेरा गोत्र उच्च है, सभी लोगों को माननीय है... अन्य का ऐसा गोत्र नहि है इत्यादि..." क्योंकि- सभी जीवों ने सभी उच्च एवं नीचगोत्र के स्थानों को अनेकबार प्राप्त कीया है... तथा उच्चगोत्र के कारण से होनेवाला मान (अभिमान) भी कौन करे ? अर्थात् संसार के स्वरूप को जाननेवाला कोइ भी बुद्धिशाली मनुष्य मानवादी न होगा... क्योंकि- गोत्र के कोइ भी एक स्थान का अनेक बार अनुभव करने के बाद अस्थिर ऐसे उच्चगोत्र के कौन से स्थान में बुद्धिशाली मनुष्य रागादि के अभाव से आसक्त हो ? तात्पर्य यह है कि- कर्मो के परिणाम को जाननेवाला समझदार मनुष्य अन्य प्राणीओं की सेवा करे... हां, यदि पहेले कभी ऐसा उच्चगोत्र पाया न हो तब अवश्य गद्धि = आसक्ति हो, किंतु प्रत्येक प्राणीने अनेकबार ऐसे उच्चगोत्र के सभी स्थानों को पूर्वकाल में प्राप्त कीया है... अतः कहतें हैं कि- ऐसे उच्चगोत्र की प्राप्ति और अप्राप्ति में उत्कर्ष और अपकर्षे न करें... यह बात अब कहते हैं कि- अनादिकाल के इस संसार में पर्यटन करनेवाले सभी प्राणीओं ने कर्मों के अधीन ऐसे उच्च एवं नीच स्थानों का अनेक बार अनुभव कीया है... इसलिये कभी कोइक शुभ या अशुभ कर्मो के उदय से उच्च अथवा नीच मद के स्थान को प्राप्त करके हेय एवं उपादेय को जाननेवाला पंडित-साधु हर्ष या कोप न करे... कहा भी है कि- इस संसार में भटकते हुए मैंने सभी उच्चस्थानों को अनेकबार प्राप्त कीया है, इसलिये मुझे इनमें विस्मय (हर्ष) नहि है... यदि आठों प्रकार के मदस्थानो का मथन = विनाश करनेवाले तीर्थंकरोने उच्चगोत्र के मद का निषेध कीया है, अतः शेष सात मदस्थानों का भी प्रयत्न के द्वारा त्याग करना चाहिये और नीचगोत्र के उदय से अपमानित स्थान की प्राप्ति में भी वैमनस्य न करें, यह बात अब कहते हैं- अशुभ कर्मो के उदय से शिष्ट-लोक में अमान्य ऐसे अधम प्रकार के जाति, कुल, रूप, बल, लाभ आदि प्राप्त करके कोप न करें... यहां ऐसा चिंतन करें कि- इस दु:खमय संसार में अशुभ कर्मो के उदय से कौन सा नीचस्थान भूतकाल में मैंने प्राप्त नहि कीया है ? अथवा क्या अशुभ शब्दादि दुःखों को मैंने पाया नहिं है ? अर्थात् सभी नीचस्थान और शब्दादि दुःखों को प्राप्त कीया है... ऐसा शोचकर उद्वेग न करें...