Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 260 1 - 3 - 3 - 1 (125) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- मुनि संधि का परिज्ञाता है। संधि शब्द का सामान्य रूप से जोड़ना अर्थ होता है। संधि भी दो प्रकार की मानी गई है- 1. द्रव्य सन्धि और 2. भाव सन्धि। दीवार आदि में छिद्र का होना द्रव्य सन्धि कहलाता है। और कर्म विवर को भाव सन्धि कहते हैं। भाव सन्धि भी तीन प्रकार की है-१. सम्यग्दर्शन, 2. सम्यग्ज्ञान और 3. सम्यक्चारित्र की प्राप्ति। १-उदय में आए हुए दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय या क्षयोपशम और शेष का उपशमन करके सम्यक्त्व को प्राप्त करना भी भाव सन्धि है। इससे मिथ्यात्व का छिद्र रुक जाता है। २-ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है। इससे आत्मदृष्टि का अंधापा दूर होता है। अतः आत्मा आत्मद्रष्टा बन जाता है। ३-चारित्रमोहनीय कर्मका देशत: या सर्वतः क्षयोपशम करने से आत्मा को देश एवं सर्व चारित्र-श्रावकत्व एवं साधुत्व की प्राप्ति होती है इससे अव्रत के द्वार बन्द हो जाते हैं। 'सन्धि' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-'सन्धनम् सन्धिः- अर्थात् स्खलित होते हुए ज्ञान; दर्शन, चारित्र का पुनः संयोजन करना भाव सन्धि है। सन्धि का अर्थ अवसर भी किया जाता है। संध्या एवं उषा काल को-दिन की समाप्ति एवं रात के प्रारम्भ तथा रात की समाप्ति एवं दिन के उदय का संयोग काल होने से सन्धि काल कहलाते हैं। इसी प्रकार अधर्म या अज्ञान रूप निशा का अवसान और धर्म या ज्ञान स्वरूप आत्म विकास का उदय काल होने से उसे भाव सन्धि कहा है। इस दृष्टि से धर्मअनुष्ठान के अवसर को जानना एवं मोक्षमार्ग में जुडने को भी भाव सन्धि का परिज्ञान करना कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में 'सन्धि' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। क्योंकि- ज्ञानावरण दर्शनावरण एवं दर्शन और चारित्रमोहनीयकर्म का क्षयोपशम होने पर ही आत्मा में धर्म की भावना उबुद्ध होती है और मनुष्य अपने अन्दर झांकने लगता है-आत्मद्रष्टा बनता है। यहीं से जीवन का अभ्युदय आरम्भ होता है। वह अपनी आत्मा के समान ही दूसरे प्राणियों की आत्मा को देखने लगता है और उसे यह अनुभूति होती है कि- प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय है एवं दुःख अप्रिय है। जब व्यक्ति आत्मद्रष्टा होता है तो वह स्वतः हिंसा आदि दोषों से निवृत्त हो जाता है। उसे हिंसा आदि दोषों से बचने के लिए व्यवहार; भय और लज्जा की अपेक्षा नहीं रहती।