Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 3 - 6 (130) म 271 % यहां सारांश यह है कि- अप्रमत्त आत्मा हि आत्मा का मित्र है... क्योंकि- ऐसा हि मित्र आत्मा को आत्यंतिक याने सर्व प्रकार से, एकांतिक याने निश्चित रूप से, एवं परमार्थ याने वास्तविक आत्म-सुख की प्राप्ति में हेतु बनता है... और विपर्यय याने प्रमादी आत्मा से आत्मा को विपर्यय याने मोक्षसुख नहिं किंतु संसार के दुःख हि प्राप्त होते हैं... इसीलिये सूत्रकार महर्षि कहते हैं कि- बाहर मित्र को मत (न) ढुंढीयेगा... और जो यह बाह्य मित्र एवं शत्रु का विकल्प है, वह अदृष्ट याने कर्म के उदय-निमित्त है, अतः औपचारिक हि है, वास्तविक नहि... कहा भी है कि- उन्मार्ग में चलनेवाला आत्मा अपने आत्मा का शत्रु है एवं सन्मार्ग में चलनेवाला आत्मा अपने आत्मा का मित्र है, अत: मित्र स्वरूप आत्मा हि आत्मा को सुख का कारण होता है, एवं शत्रु स्वरूप आत्मा हि आत्मा के दुःख का कारण बनता है... क्योंकि- क्रोधी बलवान शत्रु प्राणी का अधिक से अधिक एक हि मरण करता है, जब किप्रमादी आत्मा स्वरूप भावशत्रु तो इस आत्मा को अनंत मरण एवं अनंत जन्म में हेतु बनाता है... अतः जो जीव निर्वाण याने मोक्ष की प्राप्ति के व्रतों का आचरण करता है वह हि आत्मा अपने आत्मा का मित्रं है... तो अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि- ऐसा कैसे जानें कि- यह आत्मा हि आत्मा का मित्र है ? तथा ऐसा होने पर आत्मा को क्या फल मिलता है ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : .. जीवन में मन-वचन-काय के योगों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि- यह योग कर्म बन्धन के भी कारण हैं। और निर्जरा के भी कारण है। जब योगों की प्रवृत्ति विषय-वासना में होती है, तो उनसे पाप कर्म का बन्ध होता है और जब इन योगों को बाह्य पदार्थों से हटाकर संयम में, धर्म ध्यान एवं सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन में लगाते हैं, तो ये निर्जरा के कारण बन जाते हैं। क्योंकि- उस समय साधक की प्रवृत्ति आत्माभिमुख होती है। उसे इस बात का कोई ध्यान ही नहीं रहता कि- बाहिर क्या कुछ हो रहा है ? जिस समय वह आत्म चिन्तन में संलग्न रहता है, उस समय उसे शारीरिक अनुभूति भी नहीं होती है। इसलिए उसे यह भान नहीं रहता कि- दुःख एवं आनन्द क्या है ? / जिस समय गजसुकुमाल मुनिके सिर पर सोमल ब्राह्मण ने प्रज्वलित अंगारे रखे तब उसको तीव्र वेदना हुई होगी; इसकी हम कल्पना कर सकते हैं। परन्तु उनका चिन्तन आत्म स्वरूप में था, इसलिए उन्हें उसकी अनुभूति नहीं हुई।