Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 3 - 6 (130) 269 कहते हैं-अंरिहंत, सिद्ध और सर्वज्ञ को तथागत कहा जाता है। - प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'विहुय कप्पे-विधूत कल्प:' का अर्थ है-अष्टकर्मो को आत्मा के पृथक् करने वाला व्यक्ति। कर्म क्षय करने के लिए उद्यत मुनि जब धर्मघ्यान एवं शुक्लध्यान में निमग्न होता है, तब उसे शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। उस समय उसकी जो स्थिति होती है- उसका वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 130 // 1-3-3-6 का अरई ? के आणंदे ? इत्थं पि अग्गहे चरे, सव्वं हासं परिच्चज्ज आलीणगुत्तो परिव्वए, पुरिसा ! तुमं चेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ? // 130 // II संस्कृत-छाया : का अरतिः ? को वा आनन्दः ? अत्राऽपि अग्रहः चरेत् / सर्वं हास्यं परित्यज्य आलीनगुप्तः परिव्रजेत्। हे पुरुष ! त्वं एव तव मित्रम्, किं बहिः मित्रमिच्छसि ? // 130 // III सूत्रार्थ : ___ क्या अरती ? और क्या आनंद ? साधु-मुनी यहां भी गृद्धि-आसक्ति का त्याग कर विचरें... सभी हास्यका त्याग करके कूर्म की तरह आलीनगुप्त होकर प्रव्रज्या का पालन करें... हे पुरुष ! तुं हि तुम्हारे मित्र हो... क्यों बाहर के मित्र को चाहते हो ? // 130 // IV टीका-अनुवाद : ___ अरती याने इष्ट की प्राप्ति के विनाश से चित्त में होनेवाला विकार... और आनंद याने अभिलषित अर्थ-वस्तु की प्राप्ति... किंतु धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान के अध्यवसाय से अन्तरात्म के ध्येयवाले योगिजनों के चित्त में अरती और आनंद के उपादान कारणों का हि अभाव है... इसलिये योगिजनों को प्रतिकूलता में क्या अरती ? और अनुकूलता में क्या आनंद ? अर्थात् सामान्य जनों के चित्त में जो अरती एवं आनंद होते हैं, ऐसे भाव योगिजनों के चित्त में कदापि नहि होतें... - हां ! यदि योगिजनों को अरति और आनंद है, तो फिर असंयम में अरती एवं संयममें आनंद... यह यहां अनुमत है... अतः इस अभिप्राय से अरती और आनंद न करना चाहिये