Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 276 1 - 3 - 3 - 9 (133) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रीमान् आप लाखों वर्ष पर्यंत जय पाओ ! इत्यादि स्वरूप परिवन्दन... तथा मानन याने बल एवं पराक्रमवाले मुझे देखकर अन्य लोग अभ्युत्थान = खडे होना, विनय, आसनदान, तथा अंजली जोडना इत्यादि प्रकार से मेरा मान (स्वागत) करेंगे... तथा पूजन याने विद्यावाले तथा बहोत धन-धान्यादि से समृद्ध ऐसे मेरी अन्य लोग दान, मान, सत्कार, प्रणाम तथा सेवा इत्यादि प्रकार से पूजा करेंगे... इस प्रकार वंदन, मानन एवं पूजन के लिये प्रवृत्त होनेवाले वे लोग कर्मो के आश्रवों से अपने आत्मा को भावित करतें हैं अर्थात् कर्मबंध करतें हैं... इस प्रकार जिस वंदन-माननपूजन के लिये राग-द्वेषवाले कितनेक लोग प्रमाद करतें हैं, अर्थात् वे अपने आत्मा के हित को नहि किंतु अहित को हि करतें हैं... अब इससे विपरीत जो अप्रमाद है, उसका स्वरूप कहते हैं... V सूत्रसार : जब मनुष्य की दृष्टि देहाभिमुख या भौतिकता की ओर होती है, तब वह दुःखों के नाश का उपाय भी बाह्य पदार्थों में खोजता है। इसलिए वह अनुकूल पदार्थ एवं साधनों पर अनुराग करता है और प्रतिकूल साधनों पर द्वेष करता है। अर्थात् उनसे बचने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार राग-द्वेष में संलग्न व्यक्ति अपने जीवन के लिए, वन्दन, सत्कार पाने के लिए, मान-सम्मान एवं पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए अनेक प्रकार से प्रमाद का सेवन करता है। वह अपने क्षणिक जीवन के लिए हिंसा आदि अनेक दोषों का सेवन करता है और विषय-वासना में अधिक आसक्त होने के कारण रात-दिन वासनाओं का पोषण करने में लगा रहता है। इससे वह पाप कर्म करके संसार में बार-बार परिभ्रमण करता है। , निष्कर्ष यह है कि- राग-द्वेष के वश जीव हिंसादि दोषों में प्रवृत्त होकर पाप कर्मों का संग्रह करता है और परिणाम स्वरूप दुःखों के प्रवाह में बहता रहता है... __ अतः साधक को राग-द्वेष का त्याग कर देना चाहिए। जो व्यक्ति राग-द्वेष का परित्याग कर देते है। उनके विषय में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 9 // // 133 // 1-3-3-9 सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए, पासिमं दविए लोकालोकपवंचाओ मुच्चइ त्ति बेमि // 133 // II संस्कृत-छाया : सहितः दुःखमात्रया स्पृष्टः सन् न झञ्झायै, पश्य इमं द्रव्यः लोकालोकप्रपञ्चात्