Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 284 // 1 - 3 - 4 - 3 (136) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन व्यक्ति आत्मा का चिन्तन करता है, उसके स्वरूप को जानने का प्रयत्न करता है तब वह सहज ही अन्य तत्त्वों से परिचित हो जाता है। क्योंकि- आत्मा असंख्यात प्रदेशी, अरूपी एवं अनन्त चतुष्टय युक्त शुद्ध है। फिर भी अनंत आत्माएं संसार में परिभ्रमण कर रही हैं। इसका कारण यह है कि- वे कर्म पुद्गलों से आवृत्त हैं। कर्म अजीव हैं, जड़ है। अतः जब कर्म के विषय में सोचते हैं, तो अजीव तत्त्व का बोध हो जाता है। ___ अब प्रश्न यह होता है कि- अजीव या कर्म पुद्गल आत्मा को क्यों आवृत्त करते है ? इस समस्या के समाधान में चिंतन करने पर ज्ञात होता हैं कि- संसारी आत्मा रागद्वेष एवं कषाय युक्त परिणामों तथा योगों की प्रवृत्ति से शुभ और अशुभ कर्मों-(पाप और पुण्य) का संग्रह करती है। शुभाशुभ कर्म आगमन के द्वार को शास्त्रीय भाषा में आस्रव कहते हैं। और इन आए हुए कर्मों का लेश्या-परिणामों की तीव्रता एवं मन्दता के अनुसार तीव्र एवं मन्द कर्म-बन्ध होता है। संयम के द्वारा आते हुए नए कर्मों को रोक दिया जाता है और तप के द्वारा पुराने कर्मों का क्षय कर दिया जाता है, इस प्रक्रिया से आत्मा एक दिन कर्म एवं कर्म जन्य उपाधिओं से सर्वथा मुक्त हो जाती है, इन्हें क्रमश: संवर; निर्जरा कहते हैं। इस प्रकार आत्मा के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान करने वाला व्यक्ति अन्य तत्त्वों को भी जान लेता हैं। एक तत्त्व के परिज्ञान में सभी तत्त्वों का तथा सभी तत्त्वों के परिज्ञान में एक तत्त्व का ज्ञान हो जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि- एक वस्तु के साथ अनेक या समस्त वस्तुओं का संबंध जुड़ा हुआ है और अनेक में एक समाहित है। इसलिए सम्यक्तया एक वस्तु का ज्ञान होने पर अनेक वस्तुओं का बोध सहज ही हो जाता है। इस प्रकार आत्म चिन्तन की गहराई में उतरने पर वह साधु अज्ञान के आवरण को दूर करके आत्मा के परि पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेता है और सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होकर संसार के प्राणियों को मोक्ष मार्ग दिखाता है। ____ सर्वज्ञ बनने के बाद तीर्थंकर परमात्मा उपदेश देते हैं, यह बात बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 136 // 1-3-4-3 सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स नत्थि भयं, जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं नामे। दुक्खं लोगस्स जाणित्ता, वंता लोगस्स संजोगं, जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावकंखंति जीवियं // 136 // II संस्कृत-छाया :