Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 4 - 3 (138) // 285 सर्वतः प्रमत्तस्य भयम्, सर्वत: अप्रमत्तस्य नाऽस्ति भयम् / यः एकं नामयति सः बहुं नामयति, य: बहु नामयति स: एकं नामयति / दुःखं लोकस्य ज्ञात्वा, वान्त्वा लोकस्य संयोगम्, यान्ति धीराः महायानम्, परेण परं यन्ति, न अवकाङ्क्षन्ति जीवितम् // 136 // III सूत्रार्थ : प्रमादी व्यक्ति को चारों और से भय है, तथा अप्रमत्त को चारों और से निर्भयता है... जो एक को नमाता है वह बहु को नमाता है और जो बहु को नमता है वह एक को नमाता है... लोक के दुःखों को जानकर, लोगों के संयोग का वमन याने त्याग करके धीर पुरुष मोक्षमार्ग में जाते हैं... पर से पर की और जाते हैं तथा जीवित की आकांक्षा नहि रखतें... // 136 // IV टीका-अनुवाद : द्रव्यादि सर्व प्रकार से भय उत्पन्न करनेवाले कर्मो का बंध करनेवाले प्रमत्त याने प्रमादवाले प्राणी को चारों और से भय होता है... वे इस प्रकार- प्रमादी मनुष्य द्रव्य से सभी आत्मप्रदेशों से कर्म ग्रहण करता है... क्षेत्रसे छह (6) दिशाओं में रहे हुए कर्मो को बांधता है... काल से प्रति समय कर्मो का बंध होता है... तथा भाव से हिंसा आदि के दूषित भावों के द्वारा कर्मबंधन होता है... अथवा प्रमादी मनुष्य को सभी जगह चारों और से अथवा इस जन्म में एवं जन्मांतर में भय होता हैं... और जो मनुष्य इस से विपरीत याने अप्रमत्त है, उसको सभी जगह चारों और से अथवा इस जन्म में और जन्मांतर में कहिं भी भय नहि है... अर्थात् आत्महित में सावधान ऐसे अप्रमत्त को संसार के कोइ भी स्थान से या कर्मो से भय नहि है... तथा कषायों के अभाव से हि अप्रमत्तता होती है... और कषायों के अभाव से शेष मोहनीय कर्म का भी अभाव होता है... तथा मोहनीय कर्म के अभाव से शेष सभी कर्मो का क्षय होता है... इस प्रकार एक के अभाव में हि “बहु" याने सभी का अभाव संभवित होता है... इस प्रकार एक के अभाव में बहु का अभाव, और बहु के अभाव में एक का अभाव इस प्रकार गत-प्रत्यागत... हेतु-हेतुमद् भाव को दिखते हुए कहतें हैं कि- प्रवर्धमान शुभ अध्यवसायों के कंडक में चढा हुआ जो व्यक्ति "एक" अनंतानुबंधी क्रोध को नमाता है अर्थात्