Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 3 - 2/3 (126-127) // 263 संयम में परमार्थ को जाननेवाले ज्ञानी साधु कभी भी प्रमाद न करें... तथा आत्मगुप्त याने इंद्रिय एवं नोइंद्रिय याने मनसे गुप्त ऐसा वह अप्रमादी मुनी सदा संयमयात्रा की मात्रा याने आहार-वस्त्रादि की मर्यादा के द्वारा अपने आत्मा का निर्वाह करें, अर्थात् विषय-कषायों की उदीरणा कीये बिना हि संयम के आधारभूत देह का प्रतिपालन हो ऐसा करें... कहा भी है कि- आहार के लिये अनिंद्य कार्य करें... क्योंकि- आहार से प्राणो का संधारण होता है... तथा तत्त्वजिज्ञासा के लिये हि प्राणो को धारण करना चाहिये... तथा पुनः जन्म न हो, इसके लिये तत्त्व को जानना चाहिये... अब वह आत्मगुप्तता कैसे हो ? ऐसा यदि प्रश्न हो, तो उत्तर स्वरूप आगे का सूत्र कहते हैं... राग का अभाव वह विराग... अर्थात् आंख के विषय में आनेवाले अच्छे या बुरे रूप में विरक्त रहें... यहां रूप शब्द से पांचों इंद्रियों के विषय जानीयेगा... क्योंकि- पुद्गलों का रूप-गुण हि आत्मा को अधिक आक्षेप याने आकर्षित करता है... इसलिये रूप का ग्रहण कीया है... यहां सारांश तो यह है कि- पांचो इंद्रियों के शब्दादि विषयों में विरक्त रहें... महान् याने देवी-देवताओं के रूप में तथा क्षुल्लक याने मनुष्य के रूप में सर्वत्र विराग भाव को धारण करें... अथवा तो देवता आदि गति के जीवों में बहोत अच्छा या सामान्य कोइ भी प्रकार के रूप में रांग न करें... नागार्जुनीय-मतवाले तो कहते हैं कि- पांचो इंद्रियों के अच्छे या बुरे दोनो प्रकार के विषयों में वह मुनी राग एवं द्वेष से लिप्त नहि होता है, कि- जो मुनी उनके तात्त्विक स्वरूप को अच्छी तरह से जानते हैं... ... शब्दादि पांचों विषयों में भी इष्ट एवं अनिष्ट स्वरूप दो प्रकार हैं, और उन दोनो में भी हीन, मध्यम एवं उत्कृष्ट भेद होते हैं... अत: उन विषयों को भाव याने परमार्थ से अच्छी तरह से जाननेवाले मुनी पाप कर्म से एवं राग-द्वेष से लिप्त नहि होता है... क्योंकि- मुनी उन विषयों में राग-द्वेष नहि करता है... तथा आगति याने आगमन, और गति याने गमन... और वह आगति और गति तिर्यंच एवं मनुष्य में चार प्रकार की होती है, तथा देव एवं नारक में दो प्रकार की होती है... वे इस प्रकार- देव-मनुष्य तिर्यंच और नारक जीव मनुष्य एवं तिर्यंच गति में आते हैं, और तिर्यंच तथा मनुष्य मरकर चारों गति में जाते हैं... तथा देव एवं नारक मनुष्य तथा तिर्यंच गति में हि आते हैं तथा तिर्यंच एवं मनुष्य हि देव तथा नरक गति में उत्पन्न होते हैं... मात्र मनुष्य गति के जीवों की एक और यह विशेषता है कि- वे सभी कर्मो का क्षय कर के मोक्षगति को भी पा शकतें हैं...