Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 4 - 1 (84) 127 है... इस प्रकार कितनेक लोगों को शब्दादि विषयों के भोग का अनुराग छुटता नहि है... " तथा "आत्मा से शरीर भिन्न है" "आत्मा शाश्वत है, शरीर विनश्वर है," इत्यादि चिंतन से शब्दादि विषयों के भोगोपभोग के स्वरूप को यथावस्थित जाननेवाले सनत्कुमार चक्रवर्ती आदि की तरह उदार सत्त्वशाली अन्य महापुरुषों को विषयोपभोग का अनुराग नहि होता है... किंतु ऐसी विषम रोगावस्था में वेदना होते हुए भी वे ऐसा सोचते हैं कि- मैंने जैसे कर्म कीये है वे मुझे भुगतना हि है ऐसा समझकर समभाव से सहन करतें हैं, अतः ऐसे उदात्त विचार से कर्मो को क्षय करने में तत्पर मनवाले उत्तम पुरुषों को दुर्ध्यान स्वरूप मानसिक पीडा नहि होती है... कहा भी है कि- हे जीव ! यह कर्मवृक्ष तुने खुदने हि बोया है... जो जन्म स्वरूप क्यारीवाला है, जिसमें मोह स्वरूप जल भरा हुआ है, और जिसका राग, द्वेष एवं कषायों की परंपरा स्वरूप महान् एवं अविनाशी बीज है और जो स्वयं अशुभ है... तथा जो रोग स्वरूप अंकुरवाला है, आपदा-संकट स्वरूप कुसुम-फुलवाला है, ऐसा इस कर्मवृक्ष को धर्मध्यानाग्नि से दग्ध नहि करोगे तो अधोगति में संभवित नरकादि के दुःखों से फलित होगा... इस संसार के दुःख-फल का अनुभव बाद में भी करना पडेगा... क्योंकि- संचित कीये हुए कर्मों का बिना भोगे या तपश्चर्या से निर्जरा कीये बिना युहि विनाश नहि होता है, ऐसा समझ कर हे जीव ! इसी जनम में जो जो दुःख आवे उन्हे समभाव से सहन कर, क्योंकिसत् और असत् का विवेक मनुष्य जन्म के अलावा अन्यत्र और कोइ जन्म में पुनः मिलना संभव नहि है.. ___ अब सूत्रकार महर्षि कहतें हैं कि- कामभोगों के मुख्य कारण धन है, अतः अनर्थकारी धंन का स्वरूप आगे के सूत्र में कहेंगे.... V सूत्रसार : तृतीय उद्देशक में विषय-भोगों में आसक्त नहीं रहने का उपदेश दिया है। और चौथे उद्देशक के प्रारम्भ में भोगासक्त जीवों की जो दुर्दशा होती है, उसका सजीव चित्र चित्रित करके बताया है कि- उन जीवों की भोगेच्छा, विषयाभिलाषा एवं ऐश्वर्य की तृष्णा पूर्ण होने में असंदिग्धता नहीं है। कभी आंशिक रूप से अभिलाषा पूर्ण हो भी सकती है और कभी नहीं भी हो सकती है। अत: उसकी पूर्ति हो या न हो, परन्तु इतना तो निश्चित है कि- भोगों की आशा, तृष्णा, आकांक्षा एवं अभिलाषा के शल्य का कांटा तो उसे अनवरत पीड़ित करता ही रहेगा। संसार में कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं कि- जो दिन-रात विषय-भोगों में निमज्जित रहते