Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 178 1-2-6-2 (99) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के जीवन में की भावना जागृत होती है उस समय वह संसार के प्राणियों के हित को तो क्या ? अपने आपके हित को भी भूल जाता है। भौतिक पदार्थ एवं भोगोपभोग का मोह एवं तृष्णा मनुष्य की हिताहित की दृष्टि को आवृत्त कर लेती है। वह सब कुछ जानते हुए भी मूढ़बन जाता है। इस विषय में एक उदाहरण दिया जाता है- वह इस प्रकार एक राजा को भयंकर रोग हो गया। कई राजवैद्यों से चिकित्सा कराने पर भी वह स्वस्थ नहीं हो पाया। एक अनुभवी वैद्य को बुलाया, उसने राजा के रोग को शांत कर दिया और साथ में यह भी कह दिया कि- इस रोग का मूल कारण आम्रफल है। अत: यदि आप स्वस्थतासे शेष जीवन जीवित रहना चाहते हैं, तो कभी भी आम न खाएं। राजा ने स्वीकार कर लिया। समय बीतता चला गया, एक दिन राजा उद्यान में घूम रहा था। आम की मौसम थी। आमके वृक्षों की शाखाएं मधुर पक्के फलों से लदी हुई विनम्र शिष्य की भांति झुक रही थीं। आम्र फलों की मधुर सुवास चारों ओर फैल रही थी। फलों की सुवास एवं उनके सौंदर्य को देखकर राजा का मन ललचा गया। मंत्री ने उसे रोकना भी चाहा, परन्तु तृष्णा ने राजा के मन पर अधिकार जमा लिया था। अतः सब के कथन को ठुकराकर वह राजा आम खाने लगा... और उसका परिणाम महावेदना के रूप में प्रकट हुआ और उस महावेदना ने राजा के प्राण भी ले लिए। कहने का तात्पर्य यह है कि- तृष्णा एवं मोह के वश मनुष्य अपना हित भी भूल जाता है। तो ऐसी स्थिति में दूसरों के हित को देखने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसी कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि दोषों में आसक्त व्यक्ति को भी अंधा कहा गया है। उनके बाहिरी आंख तो रहती है, परन्तु आत्मज्ञान पर मोह, अज्ञान एवं कषायों का गहरा अवगुण्ठन पड़ा रहने से वह हिताहित को नहीं देख पाता। इस लिए अज्ञानांध एवं मोहांध वह मनुष्य पाप कार्य में प्रवृत्त होता है। ‘लालप्पमाणे' का अर्थ है- बार-बार इच्छा करना ‘विप्परियासमुवेई' का अर्थ हैहित के कार्य को अहितकर एवं अहित के कार्य को हितप्रद समझना। इसे बुद्धि की विपरीतता भी कहते है। 'पुढो वयं पकुव्वइ, पृथग्-विभिन्नं वयं करोति यदि वा-का तात्पर्य यह है- पृथुविस्तीर्णं वयमिति वयन्ति पर्यटन्ति प्राणिनः स्वकीयेन कर्मणा यस्मिन् स वयः-संसारस्तं करोति, तथा वयः अवस्था विशेषः' अर्थात् यह जीव व्रत का भंग करने के परिणामस्वरूप संसार में विभिन्न पृथ्वीकायादि रूप से परिभ्रमण करता है। इसका निष्कर्ष यह निकला कि- प्रमाद के वश मनुष्य अपने पथ से भटक जाता है और विभिन्न एकेंदियादि जातिओं मे उत्पन्न होता है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को अज्ञान का त्याग करके संयम में प्रवृत्त होना चाहिए। क्योंकि- संयमाराधना से वह साधु कर्मों का क्षय