Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 194 1 -2-6-9 (106) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अथवा तो उपदेश में जहां जहां अविधि से कथन होता है वहां वहां कल्याण तो है हि नहिं... जैसे कि- विद्वानों की पर्षदा-सभा में पक्ष, हेतु और दृष्टांतों का अनादर करके सामान्य भाषा से कहना यह अविधि है, और ग्राम्य जनता-मग्ध लोगों के सामने पक्ष. हेत और दृष्टांत आदि कहना अविधि है... ऐसा करने से केवल शासन की हीलना और कर्मबंध हि होता है, यहां श्रेयः - कल्याण तो कुछ भी नहि है... इसलिये कहतें हैं कि- विधि को नहि जाननेवालों के लिये मौन हि कल्याणकर है... कहा भी है कि- पापवाले (सावद्य) और निष्पाप (निरवद्य) वचनों का भेद जो नहिं जानता है उसे तो बोलना भी नहि कल्पता है तो फिर उपदेश देने की बात की तो बात हि कहां ? हां, यदि ऐसा है तो अब गीतार्थ-साधु धर्मकथा किस प्रकार कहे ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- जो मनुष्य इंद्रियों को वश करनेवाला है, विषय-विष से पराङ्मुख है, संसार से उद्विग्न मनवाला है और वैराग्य से जिसका हृदय भरा हुआ है... ऐसा व्यक्ति यदि धर्म को समझने के लिये पुछता है, तब आचार्य आदि धर्मोपदेशक विचार करें कि- यह पुरुष कौन है ? मिथ्यादृष्टि या भद्रक ? अथवा तो कौन से आशय (कल्पना) से यह पुछ रहा है ? तथा कौन से देव को माननेवाला है ? और इसने कौन से दर्शन-मत का आश्रय किया है ? इत्यादि यथायोग्य विचार करके हि धर्मोपदेश सारांश यह है कि- धर्मकथा की विधि को जाननेवाला साधु अपनी आत्मा से परिपूर्ण होकर द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से श्रोता को समझता है... वह इस प्रकार- चाणक्य (चनिक), भागवत या ऐसे हि अन्यमत से यह क्षेत्र वासित है ? या पासत्था आदि से ? या उत्सर्गरुचिवालों से यह क्षेत्र भावित है ? इत्यादि... तथा काल से- जैसे कि- यह दुःषम (पांचवा आरा) आदि काल है... अथवा तो दुर्लभद्रव्यवाला काल (दुष्काल) है... इत्यादि... तथा भाव से - राग एवं द्वेष से रहित मध्यस्थ दृष्टिवाले यह मनुष्य है इत्यादि देखकर के जिस प्रकार वे लोग बोध प्राप्त करे वैसे हि प्रकार से धर्मकथा कहे... इस प्रकार का साधु हि धर्मकथा कहने के लिये योग्य है... जो ऐसे नहि है उन साधुओं को धर्मकथा कहने का अधिकार हि नहि है... कहा भी है कि- जो साधु हेतुओं से समझनेवाले श्रोताओं को हेतु से एवं आगम की श्रद्धावालों को आगम के सूत्र से बोध देता है वह हि साधु सच्चा उपदेशक है, बाकी के सभी सिद्धांत के विराधक है... जो साधु इस प्रकार धर्मकथा की विधि को जानता है वह हि साधु प्रशस्त अर्थात् प्रशंसनीय है... जैसे कि- पुन्यवान् एवं दरिद्रों को धर्मकथा कहने में समदृष्टिवाला, विधि को जाननेवाला, श्रोताओं को पहचाननेवाला और कर्मों का विच्छेद करनेवाला वीर साधु हि