Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 198 1 - 2 - 6 - 9 (106) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है, उसे खेदज्ञ कहते हैं।" इसका तात्पर्य यह है, कि- जो व्यक्ति कर्मों को क्षय करने की विधि जानता हैं वही मुमुक्षु-कर्म क्षय के लिए उद्यत पुरुषों में कुशल एवं वीर माना जाता है। जो चारों प्रकार के बन्ध एवं बन्धन से छूटने के उपाय में संलग्न है, उसे बन्ध-मोक्षान्वेषक कहते हैं। परन्तु यहां इतना ध्यान रखना चाहिए कि- 'अणुग्घायणखेयन्ने' शब्द से मूल और उत्तर कर्म प्रकृतियों के भेद प्रभेद के ज्ञाता है, और मन-वचन का यादि योग निमित्त से आने वाले कषायमूलकबध्यमान कर्म की जो बद्ध, स्पृष्ट निधत्त और निकाचित स्वरूप अवस्था है, उसको तथा उसे दूर करने के उपाय को भी जो जानता है, और बन्धपमुक्खमन्नेसी, शब्द से कर्म बन्धन से छूटने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान अपेक्षित है, इसलिए यहां पुनरुक्ति दोष का प्रसंग उपस्थित नहीं होता है। प्रश्न- इस विवेचन से यह जानने की इच्छा होती है, कि- कर्मों को सर्वथा क्षय करने में निपुण एवं बन्धमोक्ष का अन्वेषक पुरुष छद्मस्थ है या वीतराग-सर्वज्ञ है ? उत्तर- इसका समाधान यह हे कि- ऐसा व्यक्ति छद्मस्थ ही हो सकता है, न कि- केवली। क्योंकि- उक्त विशेषण केवली पर घटित नहीं होते हैं। इसलिए वह छद्मस्थ गीतार्थ साधु होना चाहिए। इसके अतिरिक्त 'कुसले' शब्द केवली और छद्मस्थ दोनों का परिचायक है। यदि उसका अर्थ यह करें कि- जिसने घातिकर्मों का सर्वथा क्षय कर दिया है, उसे कुशल कहते हैं। यह कुशल शब्द तीर्थंकर या सामान्य केवली का बोधक है और जब इसका यह अर्थ करते हैं जो मोक्षाभिलाषी है और कर्मों को क्षय करने का उपाय सोचने एवं उसका प्रयोग करने में संलग्न हैं, उसे कुशल कहते हैं। तब कुशल शब्द से छद्मस्थ साधु का बोध होता इसके अतिरिक्त केवली ने चारों घातिकर्मों का क्षय कर दिया है, इसलिए वह कर्मों से आबद्ध नहीं होता, परन्तु अभी तक उस में भवोपग्राही-वेदनीय, नाम गोत्र और आयु कर्म का सद्भाव है, अत: वह मुक्त भी नहीं कहलाता। इसलिए 'कुशले' शब्द के आगे 'नो बद्ध न मुक्के' शब्दों का प्रयोग किया गया है। परन्तु छद्मस्थ साधु के लिये कुशल शब्द का प्रयोग कीया जाय तब ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्राप्त करके उस मोक्ष पथ पर गतिशील वह साधु मिथ्यात्व एवं कषाय के उपशम से उसकी आत्मा में ज्ञान का उद्भव है, इसलिए वह संसार में परिभ्रमण कराने वाले मिथ्यात्व आदि से बद्ध नहीं है; परन्तु अभी तक उसने उनको सर्वथा क्षय नहीं किया है, इसलिए वह मुक्त भी नहीं है। अब मुमुक्षु पुरुष को किस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिए, इसका उपदेश देते हुए सूत्रकार