Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 0-0 207 अब “सुख" पद का विवरण करते हैं... - नि. 208 सुख याने शीत... और वह सभी द्वन्द्वो के विराम से एकांतिक अनाबाध लक्षणवाला और निरुपाधिक सुख परमार्थ दृष्टि से मुक्तिसुख हि है... अन्य नहिं... क्योंकि- यह शीत ऐसा मुक्तिसुख सभी कर्मो के उपताप के अभाव से हि होता है अतः इसे शीत कहतें हैं... तथा निर्वाण याने सभी कर्मो का क्षय अथवा कर्मो के क्षय से लोकाग्र भाग पे रही हुइ सिद्धशिलावाले विशिष्ट आकाश प्रदेश... अथवा वहां होनेवाला आत्मा का सुख वह निर्वाणसुख... सुख, शीतीभूत और अनाबाध पद यह सभी निर्वाणसुख के एकार्थक पर्यायवाचक पद हैं... इस संसार में भी साता-वेदनीय कर्म के विपाकोदय से होनेवाला सुख भी शीत है... क्योंकि- ऐसी स्थिति में भी मनः कुछ आह्लाद-प्रसन्नता को पाता है... इससे जो विपरीत है वह दुःख है, और उसे उष्ण कहते हैं... अब “कषाय शोक आदि' पदों की व्याख्या करतें हैं... नि. 209 तीव्र याने उग्र कषाय के विपाकोदय स्वरूप अग्नि से यह प्राणी जलता रहता है... तथा इष्ट के वियोग से उत्पन्न होनेवाले शोक से यह प्राणी पराभव पाकर शुभ व्यापार-क्रियाओं के अभाव में जलता रहता है... तथा वेद के उदय से पुरुष स्त्री को चाहता है और स्त्री पुरुष को चाहती है तथा नपुसंक प्राणी स्त्री और पुरुष दोनों को चाहता है... किंतु इच्छा पूर्ण न होने से अरति के ताप से वह प्राणी जलता रहता है... तथा च शब्द से अन्य भी भोगउपभोग की सामग्री की प्राप्ति न होने से अरति के ताप से प्राणी जलता रहता है... इस प्रकार कषाय, शोक और वेद का उदय प्राणी को जलानेवाले होने से "उष्ण' हैं... अथवा तो संपूर्ण मोहनीय कर्म या आठों कर्म हि उष्ण हैं... और उनको भी जलानेवाला तप “उष्णतर" प्रश्न- तप उष्णतर क्यों हैं ? उत्तर- तप कषाय शोक आदि को भी जलाकर भस्म कर देता है अत: तप "उष्णतर" हैं... आचार्यजी ने जिस अभिप्राय को लेकर द्रव्य एवं भाव भेदवाले परीषह-प्रमाद-उद्यम आदि स्वरूप शीतोष्ण कहें हैं... उस अभिप्राय को अब कहतें हैं.... नि. 210 शीत और उष्ण के स्पर्श से होनेवाली वेदना-पीडा से यह प्राणी आर्तध्यानवाला होता