Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 236 1 - 3 -2 - 1 (115) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मां के गर्भ में विरस रस को ग्रहण करता हुआ प्राणी गर्भकाल पूर्ण होने पर जन्म के समय योनिमुख से बाहर आता है तब वह जंतु (मनुष्य) माता को और अपने खुद को अतुल वेदना को उत्पन्न करता है... तथा वृद्धावस्था में वह मनुष्य दीन-हीन स्वर (आवाज) वाला और चित्त के विपर्यासवाला, दुर्बल और दु:खी वह मनुष्य मरणात्मक अंतिम दशा (अवस्था) को प्राप्त करता हैं... इत्यादि... भगवान् श्री वर्धमान स्वामीजी अपने प्रथम शिष्य इंद्रभूति गौतम गणधर को कहतें हैं कि- हे आर्य ! जन्म एवं वृद्धि के कारण कर्म के कार्य स्वरूप दुःख को जानो... समझो... तथा धर्मानुष्ठान से पुनः जन्म जरा आदि न हो ऐसा प्रयत्न करो... तथा चौदह प्रकार के जीव स्थानकों के साथ अपने आत्मा के साता की तुलना करो... जैसे कि- हे आत्मन् ! तुझे सुख प्रिय है वैसा हि अन्य जीवों को भी सुख प्रिय है तथा जिस' प्रकार तुं दुःखके प्रति द्वेष रखता है वैसे हि अन्य जीव भी दु:खों के प्रति द्वेष हि रखतें हैं... ऐसा जानकर अन्य जीवों को असाता याने दु:ख-पीडा न दें... ऐसा करने से हि तुं जन्म जरा आदि के दुःखों को नहि प्राप्त करेगा... कहा भी है कि- हे आत्मन् ! जिस प्रकार तुझे इष्ट विषय सुख है, और अनिष्ट विषय दुःख है... इसी हि प्रकार अन्य जीवों को भी है अतः अन्य प्राणीओं को अप्रिय हो, ऐसा आचरण न करें... हां, यदि ऐसा है, तो अब क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं किजन्म, वृद्धि, सुख एवं दुःखों को देखकर अतिशय विद्यावाले साधु परम याने मोक्ष अथवा मोक्षमार्ग ज्ञानादि को जानकर सावध पापाचरण पाप न करें... अब कहते हैं कि- पाप का मूल स्नेहपाश याने रागानुबंध है, अतः इस स्नेहपाश को दूर करने के लिये सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे। V सूत्रसार : प्रथम उद्देशक में भाव सुप्त एवं जागरणशील पुरुष के स्वरूप को बताया गया है। इस उदेशक में आतंकदर्शी-अर्थात् नरक आदि दुर्गति में प्राप्त होने वाले दुःखों को देखनेवाला साधु कभी भी पाप कर्म में प्रवृत्त नही होता। किंतु भाव निद्रा में सुप्त पुरुष ही पाप की ओर प्रवृत्त होता है। इसलिए प्रायः वह भावसुप्त-मनुष्य दुःखों एवं असातावेदनीय कर्म का संवेदन करता है। प्रस्तुत सूत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि- साधक सब से पहिले जन्म-जरा एवं मृत्यु के स्वरूप तथा जीवों के स्वभाव को जाने। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है किं- जन्मजरा एवं मरण कर्म जन्य हैं और आरम्भ हिंसा आदि दोषों का सेवन करने से कर्म का बन्ध