Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 238 // 1-3-2-2 (116) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पाप कर्म की उत्पत्ति का कारण राग-स्नेह है। इसके वशीभूत होकर मनुष्य विभिन्न दुष्कर्मों में प्रवृत्त होता है। अतः मुमुक्षु को राग भाव का त्याग करना चाहिए। इसी बात का उपदेश देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 116 // 1-3-2-2 उम्मुंच पासं इह मच्चिएहिं, आरंभजीवी उभयानुपस्सी। कामेसु गिद्धा निचयं करंति, संसिच्चमाणा पुनरिति गम्भं // 116 // II संस्कृत-छाया : उन्मुञ्च पाशं इह मत्त्यैः, आरम्भजीवी उभयानुदर्शी। कामेषु गृद्धा निचयं कुर्वन्ति, संसिच्यमानाः पुनः यन्ति (उपयान्ति) गर्भम् // 116 // III सूत्रार्थ : इस मनुष्यलोक में मनुष्यों के साथ पाश-मायाजाल का त्याग करें... क्योंकि- अज्ञानी मनुष्य आरंभजीवी है तथा इस जन्म के एवं जन्मांतर के दुःखों को देखतें नहि हैं... अतः कामभोग में आसक्त वे कर्मबंध करतें हैं, और उन कर्मो के उदय से पुन: गर्भावस्था को प्राप्त करतें हैं // 116 // IV टीका-अनुवाद : चार प्रकार के कषाय एवं शब्दादि पांच विषयों से मुक्त होने में समर्थ ऐसे इस मनुष्यलोक में अज्ञानी मनुष्यों के साथ द्रव्य एवं भाव भेदवाले पाश याने मायाजाल को दूर करें... क्योंकि- अज्ञानी मनुष्य कामभोग की लालसावाले हैं, अत: उन कामभोगों की प्राप्ति के लिये हिंसा आदि पापारंभ करतें हैं... इसीलिये हि कहतें हैं कि- महा आरंभ एवं महापरिग्रह से हि जीवन के उपाय की कल्पना करनेवाले, उभय याने शारीरिक एवं मानसिक अथवा तो इस जन्म एवं जन्मांतर के भोगोपभोगों को देखनेवाले लोग काम याने इच्छा, और मदन अर्थात् कामविकार में आसक्त होकर कर्मो का बंध करतें हैं... तथा कामभोग की इच्छा से उत्पन्न किये हुए कर्मो के द्वारा एक गर्भ से अन्य गर्भ में जातें हैं अर्थात् संसार चक्रवाल में अरघट्टघटीयंत्र के न्याय से पर्यटन करते रहते हैं... यह यहां सारांश है... तो अब जो आत्मा अनिभृत याने अशांत है, वह कैसा होता है ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे...