Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 218 // 1-3-1-3(111)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन महामोह की निद्रा से घेरे हुए इस लोक में दुःख (कर्म) अहित के लिये है, ऐसा जाननेवाला लोकसमयदर्शी, शस्त्रोपरत मुनी, शब्दादि कामगुण दुःखों के हि कारण हैं ऐसा ज्ञ परिज्ञा से अच्छी तरह जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनका त्याग करतें हैं वह हि मुमुक्षु मुनी आत्मवान् है... ज्ञानादि स्वरूप आत्मावाला... अर्थात् शब्दादि विषयों का त्याग करके जिसने आत्मा की रक्षा की है वह मुनी आत्मवान् है... यदि ऐसा न हो तब नारक एवं एकेंद्रिय आदि के जन्म में आत्मा होते हुए भी आत्मा के कार्य का अभाव होने से उसे आत्मा कैसे कहेंगे ? अथवा... नरकगति आदि में उत्पन्न होने से बचाने के द्वारा जो आत्मा को जानतें हैं वे आत्मवित्... तथा यथावस्थित पदार्थ को जाननेवाले ज्ञान को जो जानता है वह ज्ञानवित्... तथा जिस से जीव आदि का स्वरूप जाना जाता है वह वेद याने आचारांग आदि आगम-शास्त्र.... उन को जो जानता है वह वेदवित्... तथा दुर्गति में जा रहे जंतुओं को बचानेवाला एवं स्वर्ग तथा मोक्ष के मार्ग स्वरूप धर्म को जो जानता है वह धर्मवित्... तथा सभी कर्ममल स्वरूप कलंक से रहित और योगिशर्म स्वरूप ब्रह्म को जो जानता है वह मुनी ब्रह्मवित् है... अथवा तो अट्ठारह प्रकार के ब्रह्म को जाननेवाले... ऐसे स्वरूपवाला मुनी प्रकृष्ट मति आदि ज्ञानसे जंतुगण को या उनके आधार, ऐसे इस विश्व को यथावस्थित स्वरूप से जानता है... अर्थात् जो मुनी शब्दादि विषयों के संगका त्यागी है, वह हि यथास्थित स्वरूप से लोक को जानता है... __ अर्थात् जो आत्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् और व्यस्त या समस्त मति आदि ज्ञान से लोक को जानता है वह हि मुनी है... मुनी याने जगत् की तीनो कालकी अवस्थाओं को जो जाने वह हि “मुनी' पद से वाच्य होता है... . तथा धर्म याने चेतन और अचेतन द्रव्य का स्वभाव अथवा श्रुत एवं चारित्रधर्म को जो जानता है वह धर्मवित् तथा ऋजु याने ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग के अनुष्ठान में अकुटिल अर्थात् सरल... अथवा तो यथावस्थित पदार्थ के स्वरूप के बोध से अकुटिल अर्थात् ऋजु... सर्व उपाधि (माया) से रहित एवं अवक्र हि ऋजु है... . ___इस प्रकार धर्मवित् तथा ऋजु मुनी क्या करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- भाव-आवर्त याने जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक और व्यसन (संकट) का जहां होना है वह संसार हि आवर्त है... कहा भी है कि- राग एवं द्वेष के कारण से मिथ्यादर्शन दुस्तर है... तथा जन्म के आवर्त में रहा हुआ यह जगत् (प्राणीगण) प्रमाद के कारण से बार बार अतिशय भ्रमण करता रहता है... तथा भाव-श्रोतः याने शब्दादि कामगुण स्वरूप विषयों की अभिलाषा... इस आवर्त और श्रोत में राग एवं द्वेष से होनेवाले संग-संबंध को मुनी यथावत्