Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 220 1 -3-1-4 (112) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसके बाद धर्म के स्वरूप को जानने का उल्लेख किया गया है। इसका कारण यह है कि- आचारांग आदि आगम साहित्य के द्वारा ही धर्म का स्वरूप स्पष्ट होता है। इस लिए पहिले श्रुत-साहित्य के अध्ययन का उल्लेख करके हि चारित्र-धर्म को जानने का विवेचन किया गया है। आत्म स्वरूप, श्रुत एवं चारित्र-धर्म के स्वरूप को जानने के बाद ब्रह्म के स्वरूप का सुगमता से बोध हो सकता है। क्योंकि- ब्रह्म-परमात्मा आत्मा से भिन्न नहीं है। जब आत्मा अपने समस्त कर्म आवरणों को सर्वथा हटा देती है, तो वह परमात्मा के पद को प्राप्त कर लेती है। इसी अर्थ में ब्रह्म शब्द का प्रयोग हुआ है। और ब्रह्म शब्द से 18 प्रकार के ब्रह्मचर्य को भी ग्रहण किया गया है। पहिले अर्थ में परमात्म स्वरूप को स्वीकार किया है और दूसरे अर्थ में ब्रह्मचर्य का बोध कराया है। 'प्रज्ञान' शब्द से मति-श्रुत आदि ज्ञान समझने चाहिए। क्योंकि- मति-श्रुत आदि ज्ञान से ही लोक के स्वरूप का बोध होता है। और इसी ज्ञान के द्वारा साधक संसार परिभ्रमण एवं विषयाभिलाषा के हेतुओं को जान लेता है। 'आवट्टसोए संगमभिजाणइ' में 'संग' शब्द संयोग का परिचायक है। शास्त्रों में संसार परिभ्रमण एवं विषयाभिलाषा का परस्पर कार्य-कारण भाव माना गया हैं। जब तक विषयाभिलाषा है तब तक संसार परिभ्रमण है। क्योंकि- जहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति है वहीं जन्म-मरण की परम्परा का पोषण होता है, संसार का संवर्धन होता है। अतः संसार परिभ्रमण से छुटकारा पाने के लिए राग-द्वेष का संग छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार आत्मा आदि का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके संयम मार्ग पर गतिशील साधक सुषुप्ति-भाव निद्रा का त्याग करके अपनी साधना में सदा सजग रहता है। क्योंकि- जागरण शील साधक ही राग-द्वेष से बच सकता है। इसलिए सुषुप्त एवं जागरण के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता ही अपने साध्य को सिद्ध कर सकता है। अत: ऐसे ज्ञाता को किस गुण की प्राप्ति होती है ? यह बात सूत्रकार महर्षि महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 112 // 1-3-1-4 सीउसिणच्चाई से णिग्गंथे, अरइरइसहे, फरुसयं नो वेएइ, जागरे वेरोवरए, वीरे एवं दुक्खा पमुक्खसि, जरा-मच्चु वसोवणीए नरे सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ // 112 // // संस्कृत-छाया : . शीतोष्णत्यागी सः निर्ग्रन्थः, अरतिरतिसहः, परुषतां न वेत्ति, जागरः वैरोपरतः, वीर ! एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसि / जरा-मृत्युवशोपनीत: नरः सततं मूढः धर्मं न अभिजानीते॥ 112 //