Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ॐ१-3-१-१ (109) 213 किसी प्रकार का द्वन्द नहीं है, एकान्त सुख है तथा कषाय में तपन है, दु:ख है, द्वन्द्व है, इसलिए निर्वाण सुख शीत और कषाय उष्ण है। तात्पर्य यह है कि- सुख शीत है और दुःख उष्ण है। प्रस्तुत अध्ययन में इसी अभ्यन्तर और बाह्य शीतोष्ण का विवेचन किया गया है। क्योंकि- श्रमण -मुनि शीत-उष्ण या अनुकूल प्रतिकूल स्पर्श, सुख-दुःख, कषाय, परीषह, वेद, कामवासना और शोक आदि के उपस्थित होने पर उन्हें सहन करता है और समभाव पूर्वक तप-संयम की साधना में संलग्न रहता है। वह अपनी साधना में सदा सजग रहता है। अतः प्रस्तुत अध्ययन में बताया गया है कि- श्रमण वह है-जो अपने आत्मभाव में सदासर्वदा विवेकपूर्वक गति करता है, वह सदा जागृत रहता है। जागरण और सुषुप्ति जीवन की दो अवस्थाएं हैं। मनुष्य दिन भर की शारीरिक, एवं मानसिक थकान को दूर करने के लिए कुछ देर के लिए सोता है और फिर जागृत होकर अपने काम में लग जाता है। इस प्रकार सांसारिक प्राणी जागते और सोते रहते हैं। परन्तु, यहां जागरण और सुषुप्ति शब्द का प्रयोग इस साधारण अर्थ में नहीं, किंतु आध्यात्मिक अर्थ में प्रयोग किया गया है और इसके द्वारा मुनित्व एवं अमुनित्व का लक्षण बताया गया है। अर्थात् जो सुषुप्त हैं, वे अमुंनि है वे बोध से रहित हैं और जो सदा जागते रहते हैं, वे मुनि हैं, अर्थात् वे प्रबुद्ध पुरुष हैं। ___ सुषुप्ति और जागरण के दो भेद हैं-१. द्रव्य और 2. भाव। निद्रा लेना एवं समय पर जागृत होना द्रव्य सुषुप्ति या जागरण है और विषय, कषाय, प्रमाद, अव्रत आदि में आसक्त एवं संलग्न रहना वह भाव सुषुप्ति-निद्रा है तथा त्याग, तप एवं संयम में विवेक पूर्वक लगे रहना भाव जागरण है। असंयम, अव्रत एवं मिथ्यात्व को बढ़ाने वाली क्रिया भाव निद्रा है और संयम, व्रत एवं सम्यग्ज्ञान में अभिवृद्धि करने वाली प्रवृत्ति भाव जागरण है। ___इससे स्पष्ट होता है कि- जीवन विकास के लिए भाव निद्रा प्रतिबन्धक है। क्योंकिभाव निद्रा में उसका विवेक आवृत रहता है, इसलिए वह अपनी आत्मा का हिताहित नहीं देख पाता और अनेक पापों का संग्रह कर लेता है। आगम में अविवेक पूर्वक की जाने वाली क्रिया को पाप कर्म के बन्ध का कारण माना है। परन्तु जहां विवेक चक्षु खुले हैं, यतना के साथ प्रवृत्ति हो रही है, तो वहां पाप कर्म का बन्ध नहीं होगा और जहां विवेक चक्षु बन्द हैं, वहां पाप कर्म का बन्ध होता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि- पतन का कारण भाव निद्रा ही है। द्रव्य निद्रा इतनी हानि नहीं पहुंचाती, जितनी भाव निद्रा आत्मा का अहित करती है। अतः भाव निद्रा में निमग्न व्यक्तियों को द्रव्य से जागृत होने पर भी सुषुप्त कहा है और भाव जागरण वाले जीवों को द्रव्य निद्रा लेते समय भी जागृत कहा है क्यों कि- उसकी प्रत्येक