Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 186 1 -2-6-7 (104) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अत: मुनि को चाहिए कि- वह परिग्रह एवं विषयों की आसक्ति का परित्याग करे। क्योंकि- आसक्ति से आत्मा के परिणामों में एवं विचारों में विषमता आती है, राग-द्वेष के भाव उबुद्ध होते हैं। इसलिए उसके मूलकारण आसक्ति का त्याग करने वाला साधु ही बाह्य परिग्रह से भी निवृत्त होता है, और एक दिन समस्त कर्मों एवं कर्म जन्य संसार से मुक्त होकर निर्वाण पद को प्राप्त करता है। 'ब्रवीमि' का अर्थ पूर्ववत् समझीएगा... जो व्यक्ति परिग्रह एवं विषयों की आसक्ति से मुक्त एवं विरत नहीं हुआ है, उसकी क्या स्थिति होती है ? इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 7 // // 104 // 1-2-6-7 दुव्वसुमुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाइ वत्तए, एस वीरे पसंसिए, अच्चेइ लोगसंजोगं, एस नाए पवुच्चइ // 104 // // संस्कृत-छाया : दुर्वसुमुनिः अनाज्ञया, तुच्छ: ग्लायति वक्तुम्, एषः वीरः प्रशंसितः, अत्येति लोगसंयोगं, एषः न्यायः प्रोच्यते // 104 // III सूत्रार्थ : ___ अनाज्ञा से दुर्वसु यह मुनी, तुच्छ होने से कहने में ग्लानि पाता है... और जो सुवसुमुनी है वह वीर है, और विद्वानों से प्रशंसित है, ऐसा मुनी हि लोक-संयोग का त्याग करता है... यहां यह हि मोक्ष का न्याय-नीति कहा गया है // 104 // IV टीका-अनुवाद : धन-द्रव्य अर्थवाला यह वसु शब्द यहां भव्य अर्थ में दर्शाया है... भव्य याने मुक्ति में गमन योग्य आत्मा... अतः मुक्तिगमन के लिये जो योग्य द्रव्य है, वह यहां वसु शब्द से वाच्य है... और दुर्वसु याने मुक्तिगमन के लिये अयोग्य द्रव्य = आत्मा... अतः वह स्वेच्छाचारी मनुष्य हि तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा-वचन के अभाव में हि दुर्वसु यहां कहा गया है... प्रश्न- तीर्थंकर के उपदेश में ऐसा तो क्या दुष्कर है ? कि- आत्मा स्वेच्छाचारी बनता है ? उत्तर- मिथ्यात्व से मूढ मनुष्य को इस लोक में बोध-समझ-ज्ञान प्राप्त होना दुष्कर है, तथा व्रतों में आत्मा को रखना भी दुष्कर है, तथा रति और अरति का निग्रह करना भी दुष्कर है... तथा इष्ट एवं अनिष्ट शब्दादि विषयों में मध्यस्थता की भावना दुष्कर है, तथा प्रांत एवं रूक्ष आहार का भोजन करना भी दुष्कर है... इस प्रकार खड्गधारा