Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 180 1 -२-६-3/४(१००-१०१)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन द्रव्य परिग्रह की मति का निषेध करने के कारण से अंतरंग भावपरिग्रह का भी निषेध हो गया है... परिग्रह की बुद्धि का प्रतिषेध करने से मुख्यतया यहां बाह्य द्रव्यपरिग्रह ग्रहण कीया गया है... अथवा काकु-व्यंग्य से कहते हैं कि- जो प्राणी परिग्रह के अध्यवसाय से कलुषितज्ञान याने अज्ञान का त्याग करता है, वह हि परमार्थ से बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करता है... अत: यहां सारांश यह है कि- यदि चित्त में परिग्रह की कलुषितता सा अभाव है, तब स्थविर कल्पिक साधुओं को नगर आदि के संबंध में, और जिनकल्पिक-साधुओं को पृथ्वी आदि के संबंध में भी निष्परिग्रहता हि है... इसीलिये दुःखों के हेतु एवं संसार में परिभ्रमण के कारण स्वरूप परिग्रह से जिसके अध्यवसाय (विचार) निवृत्त हुए हैं वह हि दृष्टपथ मुनी है... दृष्ट याने देखा है पथ याने ज्ञानादि स्वरूप मोक्ष मार्ग जिसने वह दृष्टपथ मुनी है... अथवा दृष्टभयः याने सात प्रकार के भयों को जाननेवाले साधु को शरीर आदि परिग्रह से, साक्षात् या परंपरा से विचार (चिंतन) करने से मालुम (ज्ञात) होता है कि- सात प्रकार के भय चारों और से बार बार आतें हैं, इसीलिये परिग्रह के त्याग में हि परमार्थ दृष्टि से साधु का ज्ञातभयत्व सत्य सिद्ध प्रतीत होता है... अतः पूर्व कही गइ बात को स्पष्ट करने के लिये कहते हैं कि- जिस को ममकार स्वरूप परिग्रह नहि है वह हि दृष्टभय मुनी है... __ अत: बाह्य एवं अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह को ज्ञ परिज्ञा एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा स्वरूप दोनों परिज्ञा से जानकर ज्ञातज्ञेय मेधावी मुनी परिग्रह के आग्रह के विपाकवाले एकेंद्रिय आदि प्राणिगण स्वरूप लोक को अच्छी तरह से जानकर तथा प्राणिगण की दश प्रकार की आहार आदि संज्ञाओं का वमन (त्याग) करके सत् और असत् के विवेक से ज्ञ = जाननेवाला मतिमान् मुनी संयम के अनुष्ठानो में अच्छी तरह से पराक्रम करे अर्थात् प्रयत्न करे... अथवा आठ प्रकार के कर्म या काम-क्रोधादि अंतरंग छह अरिवर्ग अथवा विषय और कषायों के त्याग के लिये पराक्रम करे... पुरुषार्थ करे... यहां “इति" पद अधिकार के समाप्ति का सूचक है... और "ब्रवीमि" पद “मैं सुधर्मस्वामी हे जंबू ! तुम्हे कहता हुं" इस बात का सूचक है... ___ इस प्रकार संयमानुष्ठान में उद्यम करनेवाला तथा परिग्रह के आग्रह के योग का त्याग करनेवाला मुनी कैसा होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार महर्षि कहतें हैं, कि घर-बार, धन धान्य हिरण्य आदि परिग्रह के त्यागी, अकिंचन, और संयमानुष्ठान में उद्यम करनेवाले साधु को कदाचित् मोहनीय कर्म के उदय से संयमानुष्ठान में अरति हो तो कभी भी सहन नहिं करतें... अर्थात् साधु संयमानुष्ठान में दृढ रहतें हैं... वीर याने आठ प्रकार के कर्म अथवा अंतरंग षट् अरिवर्ग को दूर करे वह वीर याने शक्तिमान् पुरुषः... तथा वह हि वीर पुरुष कदाचित् असंयम में, या परिग्रह में या शब्दादि विषयों में रति होवे, तो उसे भी सहन नहिं करतें... अर्थात् साधु परिग्रह में रति नहि करतें... इस प्रकार संयम में अरति