Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-4-1(84) 125 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 2 उद्देशक - 4 # भोगासक्ति - त्याग // I सूत्र // 1 // // 84 // 1-2-4-1 तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जंति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते व णं एगया नियया पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, भोगा मे वा अनुसोयंति इहमेगेसिं माणवाणं // 84 // II संस्कृत-छाया : ततः तस्य एकदा रोगसमुत्पादाः समुत्पद्यन्ते, यैः वा सार्द्ध संवसति, ते वा एकदा निजकाः पूर्वं परिवदन्ति, स: वा तान् पश्चात् परिवदेत् न अलं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वमपि तेषां न अलं त्राणाय वा शरणाय वा, ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातं, भोगा: मे वा अनुशोचन्ति, इह एकेषां मानवानाम् // 84 // III सूत्रार्थ : ... कामभोग से उसको जब कभी रोग उत्पन्न होते हैं, तब जिन्हों के साथ वह रहता है वे स्वजन पहेले से हि उसकी निंदा करतें हैं, अथवा वह उन अपने स्वजनों की बाद में निंदा करे... वे तुम्हारे त्राण या शरण के लिये नहि होतें... और तुम भी उनके त्राण या शरण के लिये नहिं होते हो... हर एक प्राणी के दुःख और साता को जानकर यहां कितनेक मनुष्य ऐसा सोचते हैं “यह भोगसुख मेरे है" इत्यादि... // 84 // IV टीका-अनुवाद : तृतीय उद्देशक पूर्ण हुआ, अब चौथे उद्देशक की व्याख्या करतें हैं... यहां कहना यह है कि- भोगसुख में आसक्ति न रखें... क्योंकि- भोगी लोगों को पूर्व कहे गये अपाय (संकट) होतें हैं... वे इस प्रकार हैं... बाल, निह (स्निह) कामसमनोज्ञ ऐसा दुःखी प्राणी दु:खों के आवर्त में बार बार भ्रमण करता है... क्योंकि- कामभोग दुःख स्वरूप हि हैं, और जो प्राणी कामभोग में आसक्त रहता है, उसे धातुक्षय और भगंदर आदि रोग होते हैं... इसलिये शास्त्रकार