Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 132 // 1-2-4-3(8) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पांच प्रकार के प्रमाद से दूर रहें... क्योंकि- प्रमाद हि दुःखों के आगमन का मुख्य कारण है... अब प्रश्न यह होता है कि- प्रमाद को छोड़ने के लिये किसका आलंबन लें ? उत्तरशांति याने सभी कर्मो का दूर होना अर्थात् मोक्ष... और मरण याने जहां प्राणी बार बार मरण को प्राप्त करता है वह चारगति स्वरूप संसार... अतः मोक्ष और संसार के स्वरूप का पर्यालोचन करके... जैसे कि- प्रमादी जीव को संसार में परिभ्रमणा... और प्रमाद के त्याग से संसार की परिभ्रमणा से मुक्ति याने मोक्ष... यह बात हृदय में विचार करके वह कुशल साधु विषय-कषाय स्वरूप प्रमाद न करें... अथवा शांति याने उपशम भाव से रहनेवालों को मोक्षफल प्राप्त होता है इत्यादि सोचकर प्रमाद न करें... तथा विषय और कषायों के अनुराग स्वरूप प्रमाद शरीर में हि रहता है, और वह शरीर तो स्वत: ही विनाशशील है... ऐसा सोचकर भी प्रमाद न करें... तथा इन भोगसुखों के उपभोग से कभी भी तृप्ति होती हि नहिं है, क्योंकि- कामभोगों का उपभोग तृप्ति के लिये समर्थ नहिं है... अतः हे कुशल ! हे प्राणी ! दुःखों के कारण प्रमाद स्वरूप इन वैषयिकभोगों के उपभोग से तुझे क्या (फायदा-लाभ है) ? बार बार उपभोग करने पर भी वैषयिकभोगों की इच्छाका उपशम-शमन नहि होता है... अन्यत्र भी कहा है कि- इस लोक में जीतने भी गेहुं चावल आदि धान्य तथा सोना-रूपा-मणि-माणेक आदि धन तथा हाथी घोडे, बैल आदि पशु और स्त्रीयां हैं वे सभी यदि एक व्यक्ति को प्राप्त हो तो भी जीव को तृप्ति नहि होती है, अत: ऐसा जानकर भोगोपभोगों की इच्छा का हि शमन करे = इच्छा का त्याग करें... जो प्राणी उपभोग के उपायों में तत्पर होकर विषयतृष्णा को शांत करना चाहता है वह प्राणी निश्चित हि अपराह्न काल में अपनी छाया (पडछाई) को पकडने के लिये दौडता है अर्थात् यह प्रयास निष्फल हि है... इस प्रकार भोगोपभोग की चाहवालों को भोगोपभोग की प्राप्ति या अप्राप्ति मात्र दु:खों के लिये हि होती है... यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में विषय भोगों के वास्तविक स्वरूप का वर्णन किया गया है। भोगविलास को दुःख का कारण बताया गया है। क्योंकि- विषय-भोग में प्रवतीमान व्यक्ति की इच्छा, आकांक्षा एवं तृष्णा सदा बनी रहती है। वह तृष्णा आकाश की तरह अनन्त है और जीवन सीमित है; इसलिए उसकी पूर्ति होना दुष्कर है। यदि कभी किसी इच्छा-आकांक्षा की कुछ सीमा तक सम्पूर्ति हो भी जाए, तब भी विषयेच्छा, भोगामिलाषा एवं पदार्थों की तृष्णा के शल्य का कांटा उसके हृदय में सदा चुभता रहता ही है। अगणित भोगोपभोग के साधनों