Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-5-5 (92) 153 D यह आत्मा कृतांत याने यम-मरण के मुख में हि है, अर्थात् तब तक आत्मा को शांति प्राप्त नहिं होती... अतः इस परिग्रह स्वरूप दाहज्वर को दूर कैसे करें ? उत्तर- यहां कोई दोष नहि है, क्योंकि- धर्मोपकरण में साधुओं को "यह मेरा है" ऐसा परिग्रह का आग्रह नहि होता है... दशवैकालिक आगम सूत्र में भी कहा है कि- साधु "अपने देह में भी ममत्व भाव नहिं करतें..." यहां सारांश यह है कि- जिस आहार आदि के ग्रहण में कर्मबंध हो, वह परिग्रह... किंतु जो आहार आदि का ग्रहण कर्मो की निर्जरा के लिये होते हैं वे परिग्रह नहि है इत्यादि... यहां विशेष बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : आहार आदि पदार्थ लेते समय केवल सदोषता-निर्दोषता का ज्ञान करना ही पर्याप्त नहीं है, किंतु परिमाण का भी ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि- विना परिमाण को जाने निर्दोष आहारादि से पात्र भर लेने से संयम के स्थान में असंयम का पोषण हो जाता है। यदि परिमाण से अधिक आहार ले लिया है, तो गृहस्थ को अपने एवं अपने परिवार के लिए फिर से आरम्भ करना पडेगा। सारांश यह है कि- साधु अपने आहार की मात्रा का ज्ञाता हो। शरीर निर्वाह के लिए जितने आहार की आवश्यकता है, उतना ही ग्रहण करे। जब अपने आहार का परिमाण ज्ञात नहीं है, तब अधिक आहार आ जाने से, वह खा (वापर) नहीं सकेगा, इससे अयतना होगी और यदि कभी खा लिया तो मर्यादा से अधिक आहार करने के कारण उसे आलस्यप्रमाद आएगा या वह बीमार हो जायगा, जिसके कारण वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र की यथाविधि आराधना नहीं कर सकेगा। इसलिए मुनि को गृहस्थ के घर की स्थिति-परिस्थिति एवं अपने आहार की आवश्यकता का परिज्ञान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त भगवान जिनेश्वर परमात्मा की यह आज्ञा है कि- आहार उपलब्ध हो या न हो दोनों अवस्थाओं में मुनि को समभाव रखना चाहिए। आहार के मिलने पर मुनि को गर्व नहीं करना चाहिए और न मिलने पर खेद नहीं करना चाहिए। और अधिक आहार प्राप्त हो जाने पर उसे मर्यादित काल से अधिक काल अर्थात् प्रथम प्रहर में लाया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक नहीं रखना चाहिए और आगामी दिन में खाने की अभिलाषा से रात को भी संग्रह करके नहीं रखना चाहिए। इससे लालसा एवं तृष्णा की अभिवृद्धि होती है। और तृष्णा, आसक्ति या लालसा को ही परिग्रह कहा गया है। अत: साधु को परिग्रह से सदा दूर रहना चाहिए। अर्थात् आहार आदि का संग्रह करके नहीं रखना चाहिए।